Wednesday, June 6, 2018

देहरी...श्वेता सिन्हा

चित्र:साभार गूगल

तन और मन की
देहरी के बीच
भावों के उफनते
अथाह उद्वेगों के ज्वार 
सिर पटकते रहते है।
देहरी पर खड़ा
अपनी मनचाही
इच्छाओं को 
पाने को आतुर
चंचल मन,
अपनी सहुलियत के
हिसाब से
तोड़कर देहरी की 
मर्यादा पर रखी
हर ईंट
बनाना चाहता है
नयी देहरी 
भूल कर वर्जनाएँ
भँवर में उलझ
मादक गंध में बौराया
अवश छूने को 
मरीचिका के पुष्प
अंजुरी भर
तृप्ति की चाह लिये
अतृप्ति के अनंत
प्यास में तड़पता है
नादान है कितना
समझना नहीं चाहता
देहरी के बंधन से
व्याकुल मन
उन्मुक्त नभ सरित के
अमृत जल पीकर भी
घट मन की इच्छाओं का
रिक्त ही रहेगा।
-श्वेता सिन्हा


7 comments:

  1. शुभ प्रभात सखी
    बेहतरीन रचना
    आभार
    सादर

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  2. वाह!!श्वेता .....बहुत खूब !! सीमाएं देहरी के उस पार जाने की ,अन्तर मन की वेदना का खूबसूरत चित्रण ..।

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  3. तृप्ति की तड़प और अतृप्ति का अनंत आह्लाद ही आत्मा को अवगुंठित करते है।इस देहरी का अतिक्रमण कर जाना ही मुक्ति के द्वार खोलना है। सुन्दर रचना। आभार और बधाई।

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  4. सुन्दर अभिव्यक्ति

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  5. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 07.06.2018 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2994 में दिया जाएगा

    हार्दिक धन्यवाद

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  6. मन के ख़ाली अहसास को देहरी की मुक्ति कहाँ भर पाती है ... वी तो भटकाव बढ़ा देती है ...
    बहुत ही ख़ूबसूरती से इस द्वन्द को रखा है आपने ...

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