Wednesday, November 30, 2016

महक उठी थी केसर...............स्मृति आदित्य जोशी "फाल्गुनी"


खिले थे गुलाबी, नीले,
हरे और जामुनी फूल
हर उस जगह
जहाँ छुआ था तुमने मुझे,

महक उठी थी केसर
जहाँ चूमा था तुमने मुझे,
बही थी मेरे भीतर नशीली बयार
जब मुस्कुराए थे तुम,

और भीगी थी मेरे मन की तमन्ना
जब उठकर चल दिए थे तुम,
मैं यादों के भँवर में उड़ रही हूँ
अकेली, किसी पीपल पत्ते की तरह,

तुम आ रहे हो ना
थामने आज ख्वाबों में,
मेरे दिल का उदास कोना
सोना चाहता है, और
मन कहीं खोना चाहता है
तुम्हारे लिए, तुम्हारे बिना।

स्मृति आदित्य जोशी "फाल्गुनी"

Tuesday, November 29, 2016

मेरे बच्चों से महकता है......कवियत्री सीमा गुप्ता


इनकी ख़ुशबू से मुअत्तर है ये गुलशन मेरा,
मेरे बच्चों से महकता है नशेमन मेरा।

खेलते देखती हूँ जब भी कभी बच्चों को,
लौट आता है ज़रा देर को बचपन मेरा।

मुझको मालूम है दरअस्ल है दुनिया फ़ानी,
मोहमाया में गुज़र जाए न जीवन मेरा।

तू जो आ जाए तो बरसात में भीगें दोनों,
सूखा-सूखा ही गुज़र जाए न सावन मेरा।

खो गई कौन सी दुनया में न जाने 'सीमा',
आ तरसता है तेरे वास्ते आँगन मेरा।

-कवियत्री सीमा गुप्ता 

Monday, November 28, 2016

उड़ कर दिखा दे...........दिव्या भसीन



बन जा मिट्टी
या मिट्टी बना दे,

बंद कर ले पिंजरा, अंदर से, 
या उड़ कर दिखा दे। 

सीख जा तैरना, उलटी दिशा में
या लहरों को दिशा बदलना सिखा दे। 

बन जा पतंगा, जल जा 
या बन लौ और सबको जला दे। 

बन राहों का पत्थर, खा ठोकरें 
या बन मूरत सबको झुका दे। 

ले फैसला, कुछ तो कर 
बदल जा
या बदलाव ला दे। 

-दिव्या भसीन

Sunday, November 27, 2016

समझदार बहू.........शबनम शर्मा


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शाम को गरमी थोड़ी थमी तो मैं पड़ोस में जाकर निशा के पास बैठ गई। उसकी सासू माँ कई दिनों से बीमार है। सोचा ख़बर भी ले आऊँ और बैठ भी आऊँ। मेरे बैठे-बैठे उसकी तीनों देवरानियाँ भी आ गईं। 

‘‘अम्मा जी, कैसी हैं?’’ शिष्टाचारवश पूछ कर इतमीनान से चाय-पानी पीने लगी। फिर एक-एक करके अम्माजी की बातें होने लगी। सिर्फ़ शिकायतें,  ‘‘जब मैं आई तो अम्माजी ने ऐसा कहा, 
वैसा कहा, ये किया, वो किया।’’ 
आध घंटे बाद सब यह कहकर चली गईं कि उन्होंने 
शाम का खाना बनाना है। बच्चे इन्तज़ार कर रहे हैं। 
कोई भी अम्माजी के कमरे तक न गया। 

उनके जाने के बाद मैं निशा से पूछ बैठी, ‘‘निशा अम्माजी, आज 1 साल से बीमार हैं और तेरे ही पास हैं। तेरे मन में नहीं आता कि कोई और भी रखे या इनका काम करे, माँ तो सबकी है।’’ 

उसका उत्तर सुनकर मैं तो जड़-सी हो गई। वह बोली, ‘‘बहनजी, ये सात बच्चों की माँ है। इसने रात-रात भर गीला रहकर सबको पाला। ये जो आप देख रही हैं न मेरा घर, पति, बेटा, शानो-शौकत सब इसकी है। अपनी-अपनी समझ है। मैं तो सोचती हूँ इन्हें क्या-क्या खिला-पिला दूँ, कितना सुख दूँ, मेरा बेटा, इनका पोता सुबह-शाम इनके पास बैठती हैं, ये मुस्कराती हैं, इन्हें ठंडा पिलाता है तो दुआएँ देती हैँ। जब मैं इनको नहलाती, खिलाती-पिलाती हूँ, तो जो संतुष्टि मेरे पति को मिलती है, देखकर मैं धन्य हो जाती हूँ और वह बड़े ही उत्साह से बोली, एक बात और है ये जहाँ भी रहेंगी, घर में खुशहाली ही रहेगी, 
ये तो मेरा तीसरा बच्चा बन चुकी हैं।’’ और ये कहकर वो रो पड़ी।

मैं इस ज़माने में उसकी यह समझदारी देखकर हैरान थी और मन ही मन उसे सराह रही थी।

-शबनम शर्मा

Thursday, November 24, 2016

वर्तमान साहित्य.......... राकेशधर द्विवेदी



कवि नजरबंद है और लेखनी निराश है
भारत धरा की जनता अब तो उदास है  

साहित्य जगत से अब न कोई रह गई आशा
क्योंकि वहां पसरा हुआ है सन्नाटा

सूर्य हुआ अस्त है, लुटेरा हुआ मस्त है
साहित्यकार आज यश भारती में व्यस्त है  

देश और प्रदेश में लुट रहा इंसान है
न्याय है रो रहा, चीखता हर विद्वान है

त्राहि-त्राहि मच रही हर नगर हर गली
मगर साहित्यकार को इससे है क्या पड़ी  

कवि नजरबंद है और लेखनी उदास है
भारत धरा की जनता अब तो उदास है

सृजन भी आज उदास है और गमगीन है
कवि, कविधर्म छोड़ चाटुकारिता में तल्लीन है  

लेखनी को त्यागकर सत्ता का वह दास है
जीवन वृत्त आज अवसरवादिता का संवाद है

ऐसे वह लोक धर्म कैसे निभा पाएगा
केवल सत्ता का प्रवक्ता वह कहलाएगा
  
कवि नजरबंद है और लेखनी निराश है। 

-राकेशधर द्विवेदी

Wednesday, November 23, 2016

पीले पत्ते............. निशा माथुर


शाख के पीले पत्ते रंग बदलते हुए
सांस-सांस टहनी पर गंवा देते हैं 

उम्मीदें दामन को कसके पकड़े हुए,
आंधियों की औकात को हवा देते है

भोर के भानु-सी मुस्कान सजा देते हैं
अंबर के बदरवा को देख नाच लेते हैं

स्पंदन के संचार पर गा लिया करते हैं
सप्त लहरी संगीत के स्वर सजा देते हैं

बहारों में शजर को बाखूब सजा देते हैं,
करारी धूप में खुद को भी जला लेते हैं  

जानते हैं ये दिन लौटकर नहीं आते है
इंतजार में कितने मधुमास गंवा देते है

नई-नई कोंपलों को भी जीवन देते हैं
आंख से मोती बनके टूट बिखर जाते हैं  

कुछ ऐसा जिंदगी का इम्तेहान देते हैं
मर के अपनी हस्ती को हौंसला देते है

जब कभी शजर का साथ छोड़ देते हैं
वजूद को लोगों के पैरों में दबा देते है

-निशा माथुर    

Tuesday, November 22, 2016

रिश्ते ऐसे क्यों मै निभाऊँ....नादिर खान

दुखड़ा अपना किसको सुनाऊँ
का पहनूँ मै, और का खाऊँ

जब दामों में आग लगी हो
क्या सौदा बाज़ार से लाऊँ

मंहगाई अब मार रही है
कैसे इससे पिंड छुड़ाऊँ

खुद अपना ही बोझ बना मै
कैसे घर का बोझ उठाऊँ

विद्यालय की फीस बहुत है
अब बच्चों को कैसे पढ़ाऊँ

पैसों से हैं, बनते बिगड़ते
रिश्ते ऐसे क्यों मै निभाऊँ

हैं झूठी तारीफ के भूखे
अब इनको मै क्या समझाऊँ 

-नादिर खान

Sunday, November 20, 2016

महंगी रात... मीना कुमारी


जलती-बुझती-सी रोशनी के परे
हमने एक रात ऐसे पाई थी

रूह को दांत से जिसने काटा था
जिस्म से प्यार करने आई थी 

जिसकी भींची हुई हथेली से 
सारे आतिश फशां उबल उट्ठे

जिसके होंठों की सुर्खी छूते ही
आग-सी तमाम जंगलों में लगी  

आग माथे पे चुटकी भरके रखी
खून की ज्यों बिंदिया लगाई हो
 ......
किस कदर जवान थी,
कीमती थी.. 
महंगी थी.. 
वह रात.. 
हमने जो.. 
रात यूं ही पाई थी। 

-मीना कुमारी

Saturday, November 19, 2016

महफ़िलों में एक जलती नज़्म गा लेते हैं हम...दिलीप


बढ़ रही सर्दी में इक बस्ती जला लेते हैं हम...
प्यास जो बढ़ने लगी, खूं से बुझा लेते हैं हम...

इस सियासत ने हमें करतब सिखाए हैं बहुत...
आँख से सड़कों की भी काजल चुरा लेते हैं हम...

जुर्म अब करते यहाँ है, ताल अपनी ठोक के...
और फिर हंसता हुआ बापू दिखा देते हैं हम...

खूँटियों से बाँध कर रखते हैं अपनी बेटियाँ...
भाषणों में उसको इक देवी बता लेते हैं हम...

क्या करें उस जंग के मैदान के भाषण का हम...
भर चुकी हर पास बुक, गीता बना लेते हैं हम...

बैठ कर घुटनों के बल, सिज्दे में क्या क्या न कहा...
उसकी कुछ सुनते नहीं, अपनी सुना लेते हैं हम...

हमसे ज़्यादा गर हुनर वाला दिखे तो बोलना...
लाश के ढेरों पे भी, दिल्ली बसा लेते हैं हम...

मुल्‍क़ की रहमत का हमपर, क़र्ज़ जो बढ़ता दिखे....
महफ़िलों में एक जलती नज़्म गा लेते हैं हम...

-दिलीप

Friday, November 18, 2016

स्‍मृतियों को कभी जगह नहीं देनी पड़ती... सीमा 'सदा' सिंघल



बड़ी तीक्ष्‍ण होती है
स्‍मृतियों की
स्‍मरण शक्ति
समेटकर चलती हैं
पूरा लाव-लश्‍कर अपना
कहीं‍ हिचकियों से
हिला देती हैं अन्‍तर्मन को
तो कहीं खोल देती हैं
दबे पाँव एहसासों की खिड़कियाँ
जहाँ से आकर 
ठंडी हवा का झोंका
कभी भिगो जाता है मन को
तो कभी पलकों को
नम कर जाता है 
...
कुछ रिश्‍तों को
कसौटियों पर
परखा नहीं जाता
इन्‍हें निभाया जाता है
बस दिल से
स्‍मृतियों को कभी
जगह नहीं देनी पड़ती
ये खुद-ब-खुद
अपनी जगह बना लेती हैं
एक बार जगह बन जाये तो
फिर रहती है अमिट
सदा के लिए
-सीमा 'सदा' सिंघल

Thursday, November 17, 2016

औ’ सदा को गंध उस की सो गई............महेश चन्द्र गुप्त 'ख़लिश'


एक नन्हा फूल कल तक थी कली
आज चकित सी पवन में हिल रही
देख कर वो रंग भरी पांखुरी
मन ही मन निज रूप पर थी खिल रही

गंध मदमाती हॄदय को मोहती
छा रही उपवन में चारों ओर थी
पुष्प के रंगीन जीवन की यह
आज पहली -पहली किंचित भोर थी

तितलियों के संग वह मस्ती भरी
था अजब अठखेलियाँ सी कर रहा
कोई भंवरा गिर्द उस के घूम कर
था प्रणय का गान कर सुस्वर रहा

किन्तु उस के भाग्य में कुछ और था
एक घटना अप्रतिम सी हो गई
तोड़ कर कुचला नियति के हाथ ने
औ’ सदा को गंध उस की सो गई.

-महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश

Wednesday, November 16, 2016

"बिटिया"..............विजय कुमार सपत्ति


हनी , तुझे मैंने पल पल बढ़ते देखा है !
पर तू आज भी मेरी छोटी सी बिटिया है !!

आज तू बारह बरस की है ;
लेकिन वो छोटी सी मेरी लड़की ....
मुझे अब भी याद है !!!

वही जो मेरे कंधो पर बैठकर ,
चाकलेट खरीदने ;
सड़क पार जाती थी !

वही ,जो मेरे बड़ी सी उंगली को ,
अपने छोटे से हाथ में लेकर ;
ठुमकती हुई स्कूल जाती थी !

और वो भी जो रातों को मेरे छाती पर ;
लेटकर मुझे टुकर टुकर देखती थी !

और वो भी ,
जो चुपके से गमलों की मिटटी खाती थी !

और वो भी जो माँ की मार खाकर ,
मेरे पास रोते हुए आती थी ;
शिकायत का पिटारा लेकर !

और तेरी छोटी छोटी पायल ;
छम छम करते हुए तेरे छोटे छोटे पैर !!!

और वो तेरी छोटी छोटी उंगुलियों में शक्कर के दाने !
और क्या क्या ......
तेरा सारा बचपन बस अभी है , अभी नही है !!!

आज तू बारह बरस की है ;
लेकिन वो छोटी सी मेरी लड़की ....
मुझे अब भी याद है !

वो सारी लोरियां ,मुझे याद है ,
जो मैंने तेरे लिए लिखी थी ;
और तुझे गा गा कर सुनाता था , सुलाता था !

और वो अक्सर घर के दरवाजे पर खड़े होकर ,
तेरे स्कूल से आने की राह देखना ;
मुझे अब भी याद आता है !

और वो तुझे देवताओ की तरह सजाना ,
कृष्ण के बाद मैंने सिर्फ़ तुझे सजाया है ;
और हमेशा तुझे बड़ी सुन्दर पाया है !

तुझे मैंने हमेशा चाँद समझा है ….
पूर्णिमा का चाँद !!!

आज तू बारह बरस की है ,
और ,वो छोटी सी मेरी लड़की ;
अब बड़ी हो रही है !

एक दिन विजय छोटी जी कि बड़ी हो जाएँगी ;
बाबुल का घर छोड़कर ,पिया के घर जाएँगी !!!

फिर मैं दरवाजे पर खड़ा हो कर ,
तेरी राह देखूंगा ;
तेरे बिना , मेरी होली कैसी , मेरी दिवाली कैसी !
तेरे बिना ; मेरा दशहरा कैसा ,मेरी ईद कैसी !

तू जब जाए ; तो एक वादा करती जाना ;
हर जनम मेरी बेटी बन कर मेरे घर आना ….

मेरी छोटी सी बिटिया ,
तू कल भी थी ,
आज भी है ,
कल भी रहेंगी ….
लेकिन तेरे बैगर मेरी ईद नही मनेगी ..
क्योंकि मेरे ईद का तू चाँद है !!!

विजय कुमार सपत्ति

Monday, November 14, 2016

लानत.........दिव्या माथुर














थोड़ा सा
छेड़ा भर था

रूठ गया
और न लौटा

लानत भेजी
तो भी न गया

तुझ से अच्छा
है ख़याल तेरा

दिव्या माथुर

लेखक परिचय

Sunday, November 13, 2016

बिकता हुस्न है बाज़ारों में............... प्रकाश सिंह 'अर्श'

इश्क मोहब्बत आवारापन।
संग हुए जब छूटा बचपन ॥

मैं माँ से जब दूर हुआ तो ,
रोया घर, आँचल और आँगन ॥

शीशे के किरचे बिखरे हैं ,
उसने देखा होगा दर्पण ॥

परदे के पीछे बज-बज कर ,
आमंत्रित करते हैं कंगन ॥

चन्दा ,सूरज ,पर्वत, झरना ,
पावन पावन पावन पावन ॥

बिकता हुस्न है बाज़ारों में ,
प्यार मिले है दामन दामन ॥

कौन कहे बिगड़े संगत से ,
देता सर्प को खुश्बू चंदन ॥

दुनिया उसको रब कहती है ,
मैं कहता हूँ उसको साजन॥

-प्रकाश सिंह 'अर्श' 




Saturday, November 12, 2016

गायब हो जाता है ... नीरा त्यागी




दिन 
मुझे ठगता है 
हर राहगीर में एक चेहरा दिखा 
अँधेरे में जा छिपता है... 

शाम 
मुझे नंगे पाँव
बर्फ पर दौड़ाती है 
यादों के पेड़ पर लिखा एक नाम 
पते - पत्ते पर पढ़वाती है... 

अंगुलियाँ 
जबरन बटन दबा 
उसे पास बुलाती हैं.. 

धड़कने 
दिन भर उसे कोस 
रात को खुशबू में 
उसकी
चुपचाप सो जाती हैं.. 

वजूद मुझे 
अंगूठा दिखा
उसका हाथ पकड़ 
इतराता है .. 

दिल के भीतर 
तिजोरी तोड़ 
वो मेरा चैन 
रेजगारी समझ ले जाता है... 

मुझे तुमसे मुहब्बत है 
मेज़ पर जमी धूल 
पर लिख 
वो फिर गायब हो जाता है... 

-नीरा त्यागी


Friday, November 11, 2016

संबल........दिव्या माथुर


जाड़े की
ठिठुरन में
हुक्का ही
इक संबल था

आया आज
ख़याल तेरा
गरम मुलायम
कम्बल सा

-दिव्या माथुर

Thursday, November 10, 2016

नई जिल्दें...........दीपक चौरसिया 'मशाल'



बहुत सिखाया था उसने दूर रहना बुराई से
हरेक बात पे टोका.. था समझाया था
एक किताब की तरह दी थी ज़िन्दगी
जिसमे लिखे थे जीने के नियम
और मतलब जीने का .
'कि क्यो आये हैं हम ज़मीं पर
ये मकसद भुला ना दें
सीख लें अपने पैरों पर खड़े होना
अपने दिमाग से अपनी तरह सोचना
तरक्की करना और . चैन से रहना'

मगर उसके भरोसे को..तोड़ा हर कदम हमने
हुई शुरुआत बुराई की उसी दिन से ..
जब आते ही ज़मीं पर..
उतार फेंकी जिल्द हमने..ज़िन्दगी की किताब की

और चढ़ा बैठे नई जिल्दें.. पसंद की अपनी-अपनी
अब तकलीफ से उसके सीने को रोज भरते हैं
बस इक झूठी सी बात पे.. हम हर रोज़ लड़ते हैं
अपनी ज़िल्द को असली बताते हुए
आपस में झगड़ते हैं


Wednesday, November 9, 2016

उलझन..............शैल अग्रवाल


समय की आँच पर
चढ़ा मन का पतीला
कालिख से लिपा-पुता
उबलता-उफनता

खुरच डाली हैं मैंने
वे जली-भुनी तहें
पोंछा है इसे अपने
हाथों से रगड़-रगड़

पर कैसे परोसूँ
प्यार की रसोई
शब्दों की मिठाई
नेह का जल...

वह जली महक
तो जाती नहीं
तन-से-मन-से।

-शैल अग्रवाल 

Tuesday, November 8, 2016

अनुराग...........डॉ. गुलाम मुर्तज़ा शरीफ़


वामना की कामना में
पुरोधिका का त्याग,
क्या यही है अनुराग!

वदतोव्याघात करते हो,
वाग्दंड देते हो,
दावा है पुरुषश्रेष्ट का,
कैसा निभाया साथ!!
क्या यही है अनुराग!!

पुष्प का पुष्पज लेकर,
मधुकर जताता प्यार,
गुनगुना कर, मन रिझाकर,
चूस लेता पराग!!
क्या यही है अनुराग!!

चारूचंद्र की चारूता,
मधुबाला की मादकता,
मधुमती की चपलता,
तजकर सब का प्यार,
क्यों लेते हो वैराग!!
क्या यही है अनुराग!!
-डॉ. गुलाम मुर्तज़ा शरीफ़

वामना = अप्सरा (सुन्दर परी)
कामना = अभिलाषा (ख्वाहिश)

पुरोधिका = सुशील स्त्री (नेक औरत)

Monday, November 7, 2016

आगाज तो होता है... मीनाकुमारी


आगाज तो होता है अंजाम नहीं होता
जब मेरी कहानी में वह नाम नहीं होता

जब जुल्फ की कालिख में गुम जाए कोई राही
बदनाम सही लेकिन गुमनाम नहीं होता

हंस-हंस के जवां दिल के हम क्यों न चुनें टुकड़े
हर शख्स की किस्मत में ईनाम नहीं होता

बहते हुए आंसू ने आंखों से कहा थमकर
जो मय से पिघल जाए वह जाम नहीं होता  

दिन डूबे हैं या डूबी बारात लिए कश्ती
साहिल पे मगर कोई कोहराम नहीं होता।  

-मीनाकुमारी

Sunday, November 6, 2016

ठीक है, उसे कंबल दे दो... फेसबुक से

एक बड़े मुल्क के राष्ट्रपति के बेडरूम की खिड़की सड़क की ओर खुलती थी। रोज़ाना हज़ारों आदमी और वाहन उस सड़क से गुज़रते थे। राष्ट्रपति इस बहाने जनता की परेशानी और दुःख-दर्द को निकट से जान लेते।

राष्ट्रपति ने एक सुबह खिड़की का परदा हटाया। भयंकर सर्दी। आसमान से गिरते रुई के फाहे। दूर-दूर तक फैली सफ़ेद चादर। अचानक उन्हें दिखा कि बेंच पर एक आदमी बैठा है। ठंड से सिकुड़ कर गठरी सा होता हुआ ।
राष्ट्रपति ने पीए को कहा -उस आदमी के बारे में जानकारी लो और उसकी ज़रूरत पूछो।


दो घंटे बाद , पीए ने राष्ट्रपति को बताया - सर, वो एक भिखारी है। उसे ठंड से बचने के लिए एक अदद कंबल की ज़रूरत है।
राष्ट्रपति ने कहा -ठीक है, उसे कंबल दे दो।

अगली सुबह राष्ट्रपति ने खिड़की से पर्दा हटाया।
उन्हें घोर हैरानी हुई। वो भिखारी अभी भी वहां जमा है। उसके पास ओढ़ने का कंबल अभी तक नहीं है।

राष्ट्रपति गुस्सा हुए और पीए से पूछा - यह क्या है ?
उस भिखारी को अभी तक कंबल क्यों नहीं दिया गया ?
पीए ने कहा -मैंने आपका आदेश सेक्रेटरी होम को बढ़ा दिया था। मैं अभी देखता हूं कि आदेश का पालन क्यों नहीं हुआ।

थोड़ी देर बाद सेक्रेटरी होम राष्ट्रपति के सामने पेश हुए और सफाई देते हुए बोले - सर, हमारे शहर में हज़ारों भिखारी हैं। अगर एक भिखारी को कंबल दिया तो शहर के बाकी भिखारियों को भी देना पड़ेगा और शायद पूरे मुल्क में भी। अगर न दिया तो आम आदमी और मीडिया हम पर भेदभाव का इल्ज़ाम लगायेगा।

राष्ट्रपति को गुस्सा आया - तो फिर ऐसा क्या होना चाहिए कि उस ज़रूरतमंद भिखारी को कंबल मिल जाए।
सेक्रेटरी होम ने सुझाव दिया -सर, ज़रूरतमंद तो हर भिखारी है। आपके नाम से एक 'कंबल ओढ़ाओ, भिखारी बचाओ' योजना शुरू की जाये। उसके अंतर्गत मुल्क के सारे भिखारियों को कंबल बांट दिया जाए।

राष्ट्रपति खुश हुए। अगली सुबह राष्ट्रपति ने खिड़की से परदा हटाया तो देखा कि वो भिखारी अभी तक बेंच पर बैठा है। राष्ट्रपति आग-बबूला हुए।

सेक्रेटरी होम तलब हुए। उन्होंने स्पष्टीकरण दिया -सर, भिखारियों की गिनती की जा रही है ताकि उतने ही कंबल की खरीद हो सके।

राष्ट्रपति दांत पीस कर रह गए। अगली सुबह राष्ट्रपति को फिर वही भिखारी दिखा वहां।
खून का घूंट पीकर रहे गए वो।
सेक्रेटरी होम की फ़ौरन पेशी हुई।
विनम्र सेक्रेटरी ने बताया -सर, ऑडिट ऑब्जेक्शन से बचने के लिए कंबल ख़रीद का शार्ट-टर्म कोटेशन डाला गया है। आज शाम तक कंबल ख़रीद हो जायेगी और रात में बांट भी दिए जाएंगे।
राष्ट्रपति ने कहा -यह आख़िरी चेतावनी है।
अगली सुबह राष्ट्रपति ने खिड़की पर से परदा हटाया तो देखा बेंच के इर्द-गिर्द भीड़ जमा है। राष्ट्रपति ने पीए को भेज कर पता लगाया। पीए ने लौट कर बताया -कंबल नहीं होने के कारण उस भिखारी की ठंड से मौत हो गयी है।
गुस्से से लाल-पीले राष्ट्रपति ने फौरन से सेक्रेटरी होम को तलब किया। सेक्रेटरी होम ने बड़े अदब से सफाई दी -सर, खरीद की कार्यवाही पूरी हो गई थी। आनन-फानन में हमने सारे कंबल बांट भी दिए। मगर अफ़सोस कंबल कम पड़ गये।
राष्ट्रपति ने पैर पटके -आख़िर क्यों ?
मुझे अभी जवाब चाहिये।
सेक्रेटरी होम ने नज़रें झुकाकर बोले श्रीमान पहले हमने कम्बल अनुसूचित जाती ओर जनजाती के लोगो को दिया ,,फिर अल्पसंख्यक लोगो को फिर .......
फिर ओ बी सी ...करके उसने अपनी बात उनके सामने रख दी |आख़िर में जब उस भिखारी का नंबर आया तो कंबल ख़त्म हो गए।
राष्ट्रपति चिंघाड़े -आखिर में ही क्यों?
सेक्रेटरी होम ने भोलेपन से कहा -सर, इसलिये कि उस भिखारी की जाती ऊँची थी , और वह आरक्षण की श्रेणी में नही आता था ,,इसलिये उस को नही दे पाये ,,ओर जब उसका नम्बर आया तो कम्बल ख़त्म हो गये

:  नोट : 
वह बड़ा मुल्क भारत है ।
जहाँ की योजनाएं इसी तरह चलती हैं ।
और कहा जाता है कि भारत में सब समान हैं 
सबका बराबर का हक़ है।

Saturday, November 5, 2016

छठ पूजा की शुभकामनाएँ.... संकलन

छठ का आज हैं पावन त्यौहार
सूरज की लाली माँ का हैं उपवास
जल्दी से आओ अब करो न विचार
छठ पूजा का खाने तुम प्रसाद
छठ पूजा की शुभकामनाएँ


गाया जाने वाला लोक गीत..
........
काँच ही बाँस के बहँगिया, 
बहँगी लचकति जाय... 
बहँगी लचकति जाय... 
बात जे पुछेलें बटोहिया बहँगी केकरा के जाय ? 
बहँगी केकरा के जाय ? 
तू त आन्हर हउवे रे बटोहिया, 
बहँगी छठी माई के जाय... 
बहँगी छठी माई के जाय... 
काँच ही बाँस के बहँगिया, 
बहँगी लचकति जाय... 
बहँगी लचकति जाय... 

केरवा जे फरेला घवध से ओह पर सुगा मेंड़राय... 
ओह पर सुगा मेंड़राय... 
खबरि जनइबो अदित से सुगा देलें जूठियाय 
सुगा देलें जूठियाय... 
ऊ जे मरबो रे सुगवा धनुष से सुगा गिरे मुरझाय... 
सुगा गिरे मुरझाय... 
केरवा जे फरेला घवध से ओह पर सुगा मेंड़राय... 
ओह पर सुगा मेंड़राय... 
पटना के घाट पर नरियर नरियर किनबे जरूर... 
नरियर किनबो जरूर... 
हाजीपुर से केरवा मँगाई के अरघ देबे जरूर... 
अरघ देबे जरुर... 
आदित मनायेब छठ परबिया बर मँगबे जरूर... 
बर मँगबे जरूर... 
पटना के घाट पर नरियर नरियर किनबे जरूर... 
नरियर किनबो जरूर... 
पाँच पुतर अन धन लछमी, लछमी मँगबे जरूर... 
लछमी मँगबे जरूर... 
पान सुपारी कचवनिया छठ पूजबे जरूर... 
छठ पूजबे जरूर... 
हियरा के करबो रे कंचन वर मँगबे जरूर... 
वर मँगबे जरूर... 
पाँच पुतर अन धन लछमी, लछमी मँगबे जरूर... 
लछमी मँगबे जरूर... 
पुआ पकवान कचवनिया सूपवा भरबे जरूर... 
सूपवा भरबे जरूर... 
फर फूल भरबे दउरिया सेनूरा टिकबे जरूर... 
सेनूरा टिकबे जरुर... 
उहवें जे बाड़ी छठि मईया आदित रिझबे जरूर... 
आदित रिझबे जरूर... 
काँच ही बाँस के बहँगिया, 
बहँगी लचकति जाय... 
बहँगी लचकति जाय... 
बात जे पुछेलें बटोहिया बहँगी केकरा के जाय ? 
बहँगी केकरा के जाय ? 
तू त आन्हर हउवे रे बटोहिया, 
बहँगी छठी माई के जाय... 
बहँगी छठी माई के जाय..
-साभार विकि पीडिया

Friday, November 4, 2016

कोई इन्‍द्रधनुष जब बनता है ... सीमा 'सदा' सिंघल



प्रेम सब कुछ छोड़ देता है 
पर भरोसा करना नहीं छोड़ता 
जिस दिन वह भरोसा करना छोड़ देगा 
यकीं मानो 
उसे कोई प्रेम नहीं कहेगा !!!
.... 
टटोल कर देखो कभी रिश्‍तों में प्रेम 
बिना ठहरे पल-पल का हिसाब 
करती यादों के साथ 
अपने सम्‍बंधों का 
बाईस्‍कोप तैयार करता मिलेगा मन तुम्‍हें
जो वक्‍़त-बेवक्‍़त एक अदद तस्‍वीर 
बड़ी ही तन्‍मयता से चिपका लेता था !
.... 
ना कोई आवाज लगाता 
कि तुम पलटकर देखो ना ही तुमसे दूर जाता, 
बसकर रह जाता रूह में सदा के लिए 
खामोशियों में भी धड़कन का गति में रहना
दिखाता है प्रेम के रंग 
कोई इन्‍द्रधनुष जब बनता है 
सारे रंग मन के संगी हो जाते हैं !!
......
मन की मुंडेर पर जब भी 
प्रेम आकर चहका है 
हर बुरे विचार को 
बड़े स्‍नेह से चुगता चला गया 
इसकी चहचहाहट के स्‍वर
आत्‍मा में उतरते चले जब 
भरोसे की एक थपकी 
यकीन की पगडंडियों पर 
मेरे साथ-साथ चलती रही !!!

-सीमा 'सदा' सिंघल

Thursday, November 3, 2016

पिता.........नादिर खान















वो छुपाते रहे अपना दर्द
अपनी परेशानियाँ
यहाँ तक कि
अपनी बीमारी भी….

वो सोखते रहे परिवार का दर्द
कभी रिसने नहीं दिया
वो सुनते रहे हमारी शिकायतें
अपनी सफाई दिये बिना ….

वो समेटते रहे
बिखरे हुये पन्ने
हम सबकी ज़िंदगी के …..

हम सब बढ़ते रहे
उनका एहसान माने बिना
उन पर एहसान जताते हुये
वो चुपचाप जीते रहे
क्योंकि वो पेड़ थे
फलदार
छायादार ।









-नादिर खान

Wednesday, November 2, 2016

चांद तन्हा है आसमां तन्हा...मीना कुमारी

 
चांद तनहा है आसमां तन्हा
दिल मिला है कहां-कहां तनहा

बुझ गई आस, छुप गया तारा
थरथराता रहा धुआं तन्हा  

जिंदगी क्या इसी को कहते हैं
जिस्म तन्हा है और जां तन्हा

हमसफर कोई गर मिले भी कहीं
दोनों चलते रहे यहां तन्हा

जलती-बुझती-सी रौशनी के परे
सिमटा-सिमटा सा इक मकां तन्हा

राह देखा करेगा सदियों तक 
छोड़ जाएंगे यह जहां तन्हा...  

-मीना कुमारी

Tuesday, November 1, 2016

इंतजार................ संजय वर्मा 'दृष्ट‍ि'




















दुआएं करते हैं 
घर में किलकारी सुनाई दे
जन्म लेता है जब घर में कोई 
तुतलाहट बोली में हम 
हो जाते हैं बच्चों के संग बच्चे 
उन्हें अपने हाव भाव से 
हंसाने का प्रयत्न करते हैं

हर धर्म की मां उसे 
खिलाती /प्यार करती 
और गोदियों में ले जाती कभी इस घर 
कभी उस घर 
इससे हो जाता घरों में सुखद वातावरण  

एक घर में उदास बैठी मां से 
उदासी का कारण पूछा 
तो किसी ने बताया कि -
इनकी बिटिया को क्रूर लोगों ने 
गर्भ में ही मार दिया
जब से उदास है  

सामने घर में खेल रही 
बिटिया में 
अपनी बिटिया का अक्स देखती मां
मन ही मन कहती 
मेरी बिटिया जीवित होती तो 
आ जाती मेरे घर में भी खुशियां 
और हो जाती मेरे चेहरे से 
उदासी काफूर   

खुशिया छीनने 
चेहरे पर उदासी लाने वालों को 
कब कड़ी सजा मिलेगी 
कई मांओं को इसका इंतजार है      



-संजय वर्मा 'दृष्ट‍ि'