Saturday, July 11, 2020

कामायनी: चिन्ता सर्ग से उद्धृत ...जयशंकर प्रसाद

ओ चिन्ता की पहली रेखा, री विश्व वन की व्याली,
ज्वालामुखी विस्फोट के भीषण, प्रथम कंप-सी मतवाली।

हे अभाव की चपल बालिके, री ललाट की खल रेखा,
हरी-भरी-सी दौड़-धूप, ओ जल-माया की चल रेखा।

अरी व्याधि की सूत्र-धारिणी, री आधि मधुमय अभिशाप,
हृदय गगन में धूमकेतु-सी, पुण्य सृष्टि में सुन्दर पाप।

आह घिरेगी हृदय लहलहे, खेतों पर करका घन-सी,    
छिपी रही अन्तरतम में, सब के तू निगूढ़ धन-सी।

बुद्धि, मनीषा, मति, आशा, चिंता तेरे कितने नाम,
अरी पाप है तू, जा, चल जा, यहाँ नहीं कुछ तेरा काम।

चिन्ता करता हूँ मैं जितनी, उस अतीत की उस सुख की,
उतनी ही अनन्त में बनती जाती, रेखाएं दुःख की ।        

प्रकृति रही दुर्जेय, पराजित, हम सब थे भूले मद में,
भोले थे हाँ, तिरते केवल, सब विलासता के नद में।

अरी उपेक्षा-भरी अमरते, री अतृप्त निर्बाध विलास,
द्विधा रहित अपलक नयनों की, भूख भरी दर्शन की प्यास।

पञ्च भूत का भैरव मिश्रण, शंपाओं के सकल निपात,
उल्का ले कर अमर शक्तियाँ, खोज रही ज्यों खोया प्रभात।

उधर गरजती सिंधु लहरियाँ, कुटिल काल के जालों-सी,
चली आ रही फेन उगलती, फन फैलाए व्यालों-सी।

धंसती धरा धधकती ज्वाला, ज्वाला मुखियों के निश्वास,
और संकुचित क्रमशः उसके, अवयव का होता था ह्रास।

लहरें व्योम चूमती उठती, चपलाएं असंख्य नचती,
गरल जलद की खड़ी झड़ी में, बूँदें निज संसृति रचती।

चपलाएं उस जलधि-विश्व में, स्वयं चमत्कृत होती थी,
ज्यों विराट बाड़व-ज्वालाएं, खंड-खंड हो रोती थी।

उस विराट आलोड़न में ग्रह, तारा बुद-बुद से लगते, 
प्रखर-प्रलय पावस में जगमग, ज्योतिर्गणों से जगते।

मृत्यु अरी चिर-निद्रे, तेरा अंक हिमानी-सा शीतल,
तू अनंत की लहर बनाती, काल-जलधि की-सी हलचल।      

ओ जीवन की मरू-मरीचिका, कायरता के अलस विषाद!
अरे पुरातन अमृत अगतिमय, मोह मुग्ध जर्जर अवसाद।

आज अमरता का जीवित हूँ मैं, वह भीषण जर्जर दम्भ,
आह सर्ग के प्रथम अंक का, अधम पात्र मय-सा विषकुंभ।
- जयशंकर प्रसाद
अनहद कृति
https://www.anhadkriti.com/jayashankar-prasad-kamayani-chinta-sarg-se-uddhrit

1 comment:

  1. वाह मनपसंद रचना के लिए बहुत बहुत धन्यवाद

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