Wednesday, June 17, 2020

हम रोज़ नए मुल्क बना सकते हैं ...गुलज़ार देहलवी

आईन तो हम रोज़ बदल सकते हैं 
अख़लाक़ में तरमीम नहीं हो सकती 

हम रोज़ नए मुल्क बना सकते हैं 
तहज़ीब की मगर तक़सीम नहीं हो सकती 

साहिर की जुबां, ज़ार की बोली मेरी 
साएल ने सिखाया है अदब का असलूब

कैफ़ी से तलम्मुज़ का शरफ़ रखता हूँ 
उर्दू के सिवा कुछ नहीं मुझे मतलूब 

नाकर्दा गुनाहों की जज़ा जब देगा  
मांगूंगा सर-ए-हश्र, खुदा से उर्दू 

गुलज़ार, आबरू ए ज़बाँ अब हमीं से है 
दिल्ली में अपने बाद ये लुत्फ़-ए-सुखन कहाँ!

-गुलज़ार देहलवी 
7 July 1926 – 12 June 2020

5 comments:

  1. वाह! बहुत उम्दा! यदि उर्दू शब्दों के अर्थ नीचे लिख दिए जाएँ तो पढ़ने का आनंद बहुगुणित हो जाएगा। आभार!!!!

    ReplyDelete
  2. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक चर्चा मंच पर चर्चा - 3736
    में दिया गया है। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
    धन्यवाद
    दिलबागसिंह विर्क

    ReplyDelete
  3. वाह! भावपूर्ण गजल। इस शेर का तो आनंद ही अलग है ---
    गुलज़ार, आबरू ए ज़बाँ अब हमीं से है
    दिल्ली में अपने बाद ये लुत्फ़-ए-सुखन कहाँ!
    वाह !!गुलजार साहेब वाह!!! 🙏🙏🙏

    ReplyDelete
  4. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  5. उर्दू का प्रशस्तिगान और समर्पित लोग रहेंगे तो उर्दू का अस्तित्व कभी धुंधलायेगा नही। नमन आदरणीय🙏🙏🌷🌷

    ReplyDelete