Sunday, December 8, 2019

सौन्दर्यबोध ....श्वेता सिन्हा

दृष्टिभर
प्रकृति का सम्मोहन
निःशब्द नाद
मौन रागिनियों का
आरोहण-अवरोहण
कोमल स्फुरण,स्निग्धता
रंग,स्पंदन,उत्तेजना,
मोहक प्रतिबिंब,
महसूस करता सृष्टि को 
प्रकृति में विचरता हृदय
कितना सुकून भरा होता है
पर क्या सचमुच,
प्रकृति का सौंदर्य-बोध
जीवन में स्थायी शांति
प्रदान करता है?
प्रश्न के उत्तर में
उतरती हूँ पथरीली राह पर
 कल्पनाओं के रेशमी 
 पंख उतारकर
ऊँची अटारियों के 
मूक आकर्षण के 
परतों के रहस्यमयी,
कृत्रिमताओं के भ्रम में
क्षणिक सौंंदर्य-बोध
के मिथक तोड़
खुले नभ के ओसारे में
टूटी झोपड़ी में
छिद्रयुक्त वस्त्र पहने
मुट्ठीभर भात को तरसते
नन्हें मासूम,
ओस में ओदायी वृक्ष के नीचे
सूखी लकडियाँ तलाशती स्त्रियाँ
बारिश के बाद
नदी के मुहाने पर बसी बस्तियों
की अकुलाहट
धूप से कुम्हलायी
मजदूर पुरुष-स्त्रियाँ
कूड़ों के ढेर में मुस्कान खोजते
नाबालिग बच्चे
ठिठुराती सर्द रात में
बुझे अलाव के पास
सिकुड़े कुनमुनाते 
भोर की प्रतीक्षा में
कंपकंपाते निर्धन,
अनगिनत असंख्य
पीड़ाओं,व्यथाओं 
विपरीत परिस्थितियों से
संघर्षरत पल-पल...
विसंगतियों से भरा जीवन
असमानता,असंतोष
क्षोभ और विस्तृष्णा
अव्यक्त उदासी के जाल में
भूख, 
यथार्थ की कंटीली धरा पर
रोटी की खुशबू तलाशता है
ढिबरी की रोशनी में
खनकती रेज़गारी में
चाँद-तारे पा जाता है
कुछ निवालों की तृप्ति में
सुख की पैबंदी चादर
और सुकून की नींद लेकर
जीवन का सौंदर्य-बोध 
पा जाता है
जीवन हो या प्रकृति
सौंदर्य-बोध का स्थायित्व
मन की संवेदनशीलता नहीं
परिस्थितिजन्य
 भूख की तृप्ति
 पर निर्भर है।
-श्वेता सिन्हा

4 comments:

  1. यथार्थ और कल्पना का सांगोपांग विच्छेद किया है आपने , कवि कल्पना में चाहे कितने सुंदर आकर्षक ताने बाने बुन लें भुखे की रोटी नहीं बन सकता बेघर की छत नहीं बन सकता ।
    जिनका पेट खाली है उनके लिए कितना भी सुंदर काव्य हो कोई मायने नहीं रखता ,साथ ही लिखा हुवा यथार्थ भी उनका पेट नहीं भरता हुआ को रोटी चाहिए होती है काव्य और साहित्य का कोई मोल नहीं है आम जरूरतों के आगे।

    बहुत सटीक यथार्थ ।

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  2. जीवन हो या प्रकृति
    सौंदर्य-बोध का स्थायित्व
    मन की संवेदनशीलता नहीं
    परिस्थितिजन्य
    भूख की तृप्ति
    पर निर्भर है।
    सौ बात की एक बात
    बहुत ही सटीक सार्थक लाजवाब सृजन
    वाह!!!

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