शब्दों की सीमा पता चल गयी ,
समझ गया कलम का रुकना !
समझ गया कलम का रुकना !
इतना सा कहना हैं और लिखना हैं -
कलाम सर ,लौट के जरूर आना !!
कलाम सर ,लौट के जरूर आना !!
आँखे नम हैं ,दिल भारी ,कागज भी फड़फड़ा रहा -हे !
भारत रत्न देखो आज आसमान भी जार जार रो रहा !
भारत रत्न देखो आज आसमान भी जार जार रो रहा !
तुम चिरनिद्रा में सो गए ,हे !
कर्मयोगी युगपुरुष हमसे रूठ क्यों चले गए !!
कर्मयोगी युगपुरुष हमसे रूठ क्यों चले गए !!
क्या लिखूं ,कैसे परिभाषित करूँ -
कैसे तुम अब्दुल से कलाम बने ? !
कैसे तुम अब्दुल से कलाम बने ? !
कहाँ से शुरू करूँ , कहाँ ख़त्म करू -
कैसे तुम रामेश्वरम से भारत माँ के लाल बने ? !!
कैसे तुम रामेश्वरम से भारत माँ के लाल बने ? !!
शब्दों की भी अपनी एक सीमा हैं ,
तुम उससे परे !
तुम उससे परे !
हे !मानवता के अग्रदूत -अब्दुल ,
तुम "कलाम" को सही अर्थ दे गए !!
तुम "कलाम" को सही अर्थ दे गए !!
कर्मयोगी युगपुरुष कलाम साहब को कोई कैसे भूल सकता है
ReplyDeleteबहुत सही
बहुत खूब, प्रशंसनीय
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत सृजन।
ReplyDeleteयार, ये पढ़कर तो मेरी भी आँखें भर आईं। आपने बस कविता नहीं लिखी, दिल का पूरा भार उकेर दिया उसमें। सच में, कलाम सर जैसे लोग एक बार आते हैं और फिर कभी नहीं लौटते। आपने रामेश्वरम से राष्ट्रपति भवन तक की जो यात्रा दिखाई है, वो शब्दों में नहीं, एहसास में ज़्यादा बैठती है।
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