यूँ तो शहर से शहर सट गये
हम भाषा मज़हब में बट गये
देखी जो उनके चेहरे की रंगत
हम उनकी राहों से ख़ुद हट गये
ख़त्म हो रहा दौर अब वह पुराना
परिवार चार बंदों में बट गये
क्या जान पाएँगे हम दर्द उनका
आज़ादी की ख़ातिर जो सर कट गये
जुनूं चढ़ रहा पैसे का इस क़द्र
अब जीवन के मूल्य घट गये
ऊँची उड़ान की चाह थी जिनको
उन ही परिंदों के पर कट गये
-मनजीत कौर
manjeetkr69@gmail.com
बहुत बढ़िया
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ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " बिछड़े सभी बारी बारी ... " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबढ़िया ।
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