Saturday, September 12, 2015

उम्मीद-ए-वफा रखता हूँ....... नुरूलअमीन "नूर "















ठोकर लगाकर जा रहे हो 
दिल को पत्थर जान कर 
जान भी लेजा मेरी 
एक छोटा सा एहसान कर

मुझको कया दिखलाते हो 
एहद ओ वफा के दायरे 
आया हूँ मैं सैंकडों 
गोलियों की खाक छान कर

हम वतन से आज भी 
उम्मीद-ए-वफा रखता हूँ 
दे रहा हूँ खुद को धोका 
खुद को नादाँ मानकर

ओस का उनको कभी 
एहसास भी होता नहीं 
शाम होते ही जो सो ~
जाते है चादर तानकर

बेवफाई के हर एक 
फन से हमे आगाह कर 
"नूर " अपनी बात कर 
या उनकी बात बयान कर

- नुरूलअमीन "नूर "

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