Thursday, November 7, 2013

शबे-तन्हाई में चमका न करो............शफ़ीक़ रायपुरी

 

बात बेबात की बातों में तो पैदा न करो
चोट पर चोट न दो ज़ख्म को गहरा न करो

हम ग़रीबों के मकानात टपकते हैं बहुत
बादलो खेत पे बरसो यहां बरसा न करो

जिस्म पर इसके ज़रूरी है दरख्तों का लिबास
काट कर पेड़ मिरे देश को नंगा न करो

देखने को तुम्हें आ जाते हैं बाहर आंसू
ऐ सितारो ! शबे-तन्हाई में चमका न करो

रंगो-ख़ुशबू से ज़माने को अदावत है बहुत
ऐ गुलो इस तरह गुलज़ार में महका न करो

आदमी ही नहीं इस शहरे-सितमगर में ‘शफ़ीक़’
तुम दरख्तों से भी साये की तमन्ना न करो

शफ़ीक़ रायपुरी 09406078694

3 comments:

  1. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (08-11-2013) को "चर्चा मंचः अंक -1423" पर लिंक की गयी है,कृपया पधारे.वहाँ आपका स्वागत है.

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  2. भावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने.....

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