गाँव में होकर भी
वो बचपन वाला गाँव ढूढ़ते है।
वो पगडण्डी,
वो खेत और खलिहान ढूढ़ते है।
गाँव में होकर भी गाँव ढूढ़ते है।
वो पीपल के पेड़ की ठंडी छांव
और तालाब का किनारा ढूढ़ते है।
वो गाँव की चौपाल ढूढ़ते हैं।
वो आकाशवाणी के
सदाबहार गाने ढूढ़ते हैं।
गाँव के वो आकाशवाणी पर
क्रिकेट का आंखों देखा हाल सुनने को
कान तरसते हैं।
गाँव में होकर भी हम गाँव ढूढ़ते है।
वो अंगीठी की आग,
वो अलाव ढूढ़ते हैं।
वो नन्ही चिड़िया की चहक,
वो माटी की सोंधी खुशबू ढूढ़ते हैं।
गाँव में होकर भी
हम गाँव ढूढ़ते हैं।
वो पनघट,
वो पनिहारन की अलबेली चाल ढूढ़ते हैं।
वो गोधूलि वो चरागाह ढूढ़ते हैं।
गाँव में होकर भी हम गाँव ढूढ़ते हैं।
- मनीषा गोस्वामी
बेहतरीन रचना
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 13.10.22 को चर्चा मंच पर चर्चा - 4580 में दी जाएगी
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबाग
भावपूर्ण लेखन
ReplyDeleteसही कहा आपने आज गाँवों में भी गाँवों सी बात नहीं रही ।
ReplyDeleteसार्थक यथार्थ सृजन।
बहुत ही सुन्दर।
ReplyDelete