Monday, August 3, 2020

ग़म के फ़साने में उलझ जाता हूँ ...डॉ. नवीन मणि त्रिपाठी

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हाले दिल सुनने सुनाने में उलझ जाता हूँ ।
मैं तेरे ग़म के फ़साने में उलझ जाता हूँ ।।

जाने कैसी है क़शिश उसकी सदा में यारो ।
बारहा उसके तराने में उलझ जाता हूँ ।।

हो शबे वस्ल कहीं मुद्दतों से है ख़्वाहिश ।
बात उनसे ये बताने में उलझ जाता हूँ ।।

कौन अपना है यहाँ कौन पराया साहब।
जुबां पे बात ये लाने में उलझ जाता हूँ ।।

वो शरर बन के गुज़रता है मेरे कूचे से ।
और मैं आग बुझाने में उलझ जाता हूँ ।।

बयां कर देती है चेहरे की शिकन जब सच को ।
मैं हक़ीक़त को छुपाने में उलझ जाता हूँ ।।

यार की शक्ल में मिलते हैं फ़रेबी मुझको ।
आजकल हाथ मिलाने में उलझ जाता हूँ ।।

जाने कैसी तेरी जुल्फों की है फ़ितरत जानां ।
मैं तेरा अक्स बनाने में उलझ जाता हूँ ।।

तोड़ जाती है कमर रोज़ यहां महँगाई ।
मैं तो परिवार चलाने में उलझ जाता हूँ ।।

-डॉ. नवीन मणि त्रिपाठी

2 comments:

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 04 अगस्त 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. सुन्दर कविता ...

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