आज पर्यावरण दिवस पर विशेष
मत काटो तुम ये पेड़
हैं ये लज्जावसन
इस माँ वसुन्धरा के।
इस संहार के बाद
अशोक की तरह
सचमुच तुम बहुत पछाताओगे;
बोलो फिर किसकी गोद में
सिर छिपाओगे?
शीतल छाया
फिर कहाँ से पाओगे ?
कहाँ से पाओगे फिर फल?
कहाँ से मिलेगा?
सस्य श्यामला को
सींचने वाला जल?
रेगिस्तानों में
तब्दील हो जाएँगे खेत
बरसेंगे कहाँ से
उमड़-घुमड़कर बादल?
थके हुए मुसाफ़िर
पाएँगे कहाँ से
श्रमहारी छाया?
पेड़ों की हत्या करने से
हरियाली के दुश्मनों को
कब सुख मिल पाया?
यदि चाहते हो –
आसमान से कम बरसे आग
अधिक बरसें बादल,
खेत न बनें मरुस्थल,
ढकना होगा वसुधा का तन
तभी कम होगी
गाँव–नगर की तपन।
उगाने होंगे अनगिन पेड़
बचाने होंगे
दिन-रात कटते हरे-भरे वन।
तभी हर डाल फूलों से महकेगी
फलों से लदकर
नववधू की गर्दन की तरह
झुक जाएगी
नदियाँ खेतों को सींचेंगी
सोना बरसाएँगी
दाना चुगने की होड़ में
चिरैया चहकेगी
अम्बर में उड़कर
हरियाली के गीत गाएगी
-रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
... बेहद प्रभावशाली
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 06.06.19 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3358 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 05/06/2019 की बुलेटिन, " 5 जून - विश्व पर्यावरण दिवस - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteपर्यावरण दिवस पर सचेत करती सुंदर रचना..
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (07-06-2019) को "हमारा परिवेश" (चर्चा अंक- 3359) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'