Friday, June 7, 2019

ख़त ....अनिल खन्ना


बरसों पहले 
बिछुड़ते वक़्त 
तुमने जो ख़त 
मुझे दिया था 
उसमे अब 
झुरीयाँ सी 
पड़ने लगी हैं, 
सियाही फीकी 
पड़ने लगी है।


अश्कों में 
डूबते-तैरते अल्फ़ाज़ 
अब बेजान से 
लगने लगे हैं , 
अपनी कशिश 
खोने लगे हैं ।
ख़त का रंग 
पीला पड़ने लगा है  
कहीं-कहीं से 
छितरने लगा है, 
सच कहुँ तो 
मुझ जैसा 
लगने लगा है।


बंद अलमारी मे रखी 
कमीज़ों की तह मे 
क़ैद हो कर 
बची हुई ज़िन्दगी 
जी रहा है ।
मेरी तरह ।
-अनिल खन्ना

6 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (08-06-2019) को "सांस लेते हुए मुर्दे" (चर्चा अंक- 3360) (चर्चा अंक-3290) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. वाह बहुत सुंदर।

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  3. बंद अलमारी मे रखी
    कमीज़ों की तह मे
    क़ैद हो कर
    बची हुई ज़िन्दगी
    जी रहा है ।
    मेरी तरह ।

    बहुत ही सुंदर

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  4. सुन्दर रचना

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