Thursday, October 18, 2018

है सजर ये मेरे अपनों का...डॉ. आलोक त्रिपाठी


बड़ा अजीब सा मंझर है ये मेरी जिन्दगी की उलझन का 
गहरी ख़ामोशी में डूबा हुआ है सजर ये मेरे अपनों का 


सिले होठों के भीतर तूफानों की सरसराहट से टूटते सब्र 
लगता है जहर बो दिया हो किसीने अपने अरमानों का 


आवाजों को निगलते मेरी बातों के अंजाम का खौफ 
खुली हवाओं में घुला हो जहर तहजीब व सलीकों का 


जीने का हुनर सीखते २ रूठ गयी है जिन्दगी मुझसे 
शिद्दत से महसूस कर रहा हूँ मै घुटन जंजीरों का 


आपनो से इतनी नफरत कि बस भाग जाऊ कहीं 
शिकायत किसी से नही बोझ हैं चाहत के अपनों का 



2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (19-10-2018) को "विजयादशमी विजय का, पावन है त्यौहार" (चर्चा अंक-3122) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    विजयादशमी और दशहरा की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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