Monday, June 29, 2015

सिंदूर.....अनुलता राज नायर













किसी ढलती सांझ को
सूरज की एक किरण खींच कर
मांग में रख देने भर से
पुरुष पा जाता है स्त्री पर सम्पूर्ण
अधिकार।
पसीने के साथ बह आता है सिंदूरी रंग
स्त्री की आँखों तक
और तुम्हें लगता है वो दृष्टिहीन हो गई।
मांग का टीका गर्व से धीरण कर
वो ढंक लेती है अपने माथे की लकीरें
हरी लाल चूड़ियों से कलाई को भरने
वाली स्त्रियां
इन्हें ङथकड़ी नहीं समझतीं,
बल्कि इनकी खनक के आगे
अनसुना कर देती हैं अपने भीतर की 
हर आवाज....
वे उतार नहीं फेंकती
तलुओं पर चुभते बिछुए,
भागते पैरों पर
पहन लेती है घुंघरू वाली मोटी पायलें
वो नहीं देता किसी को अधिकार
इन्हें बेड़ियां कहने का।

यूं ही करती हैं ये स्त्रियां
अपने समर्पण का, अपने प्रेम का
अपने जूनून का उन्मुक्त प्रदर्शन।

प्रेम की कोई तय परिभाषा नहीं होती

-अनुलता राज नायर
....रसरंग.. 8 मार्च

5 comments:

  1. वाह क्या बात है मेरे दिल को छू गई. अच्छा लगा आपके ब्लॉग पर आना
    आभार

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  2. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, मटर और पनीर - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  3. बहुत गहरी रचना ... नारी स्वतंत्र है मन से चाहे पुरुष कितना भी अधिकार जताना चाहे ...
    शशक्त रचना ...

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  4. यूं ही करती हैं ये स्त्रियां
    अपने समर्पण का, अपने प्रेम का
    अपने जूनून का उन्मुक्त प्रदर्शन।


    बहुत खूब

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