Saturday, December 14, 2013

गुनाह कुछ तो मुझे बेतरह लुभाते हैं............सौरभ शेखर



मिला न खेत से उसको भी आबो-दाना क्या
किसान शह्र को फिर इक हुआ रवाना क्या

कहाँ से लाये हो पलकों पे तुम गुहर इतने
तुम्हारे हाथ लगा है कोई ख़ज़ाना क्या

उमस फ़ज़ा से किसी तौर अब नहीं जाती
कि तल्ख़ धूप क्या, मौसम कोई सुहाना क्या

तमाम तर्ह के समझौते करने पड़ते हैं
मियां मज़ाक़ गृहस्थी को है चलाना क्या

गुनाह कुछ तो मुझे बेतरह लुभाते हैं
ये राज़ खोल ही देता हूँ अब छुपाना क्या

हो दुश्मनी भी किसी से तो दाइमी क्यूँ हो
जो टूट जाये ज़रा में वो दोस्ताना क्या

ख़बरनवीस नहीं हूँ मैं एक शायर हूँ
तमाम मिसरे मिरे हैं, नया-पुराना क्या

न धर ले रूप कभी झोंक में तलातुम का
‘वो नर्म रौ है नदी का मगर ठिकाना क्या’

करो तो मुंह पे मलामत करो मिरी ‘सौरभ’
ये मेरी पीठ के पीछे से फुसफुसाना क्या.

-सौरभ शेखर 09873866653

http://wp.me/p2hxFs-1yw

7 comments:

  1. मिला न काश्त से उसको भी आबोदाना क्या..,
    कारीगर शहर को फिर एक हुवा रवाना क्या.....

    गृहस्ती = घरबार
    समझौते = राजीनामे
    मिरे पुश्त के पशेमाँ से फुसफुसाना क्या

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (15-12-13) को "नीड़ का पंथ दिखाएँ" : चर्चा मंच : चर्चा अंक : 1462 पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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