Thursday, December 12, 2013

मैं तिरा साया हर इक रहगुज़र से चाहूं...............किश्वर नाहिद


मैं नज़र आऊं हर इक सिम्त जिधर चाहूं
ये गवाही मैं हर एक आईना गर से चाहूं

मैं तिरा रंग हर इक मत्ला-ए-दर से मांगूं
मैं तिरा साया हर इक रहगुज़र से चाहूं

सोहबतें खूब हैं व़क्ती-ए-गम की ख़ातिर
कोई ऐसा हो जिसे ज़ानों-जिगर से चाहूं

मैं बदल डालूं वफ़ाओं की जुनूं सामानी
मैं उसे चाहूं तो ख़ुद अपनी ख़बर से चाहूं

आंख जब तक है नज़ारे की तलब है बाकी
तेरी ख़ुश्बू को मैं किस ज़ौंके-नज़र से चाहूं

घर के धंधे कि निमटते ही नहीं है ‘नाहिद’
मैं निकलना भी अगर शाम को घर से चाहूं

-किश्वर नाहिद
जन्मः 1940, बुलन्द शहर (उ.प्र.)

10 comments:

  1. ज़रूरी नहीं के रूबरू हो हरेक बखत आईना..,
    मैं आईना इक अक्स मिरे दीदावर से चाहूँ.....

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  2. ज़रूरी नहीं के रूबरू हो हरेक बखत शीशा..,
    मैं शीशे-दिल इक अक्स मिरे दीदावर से चाहूँ.....

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  3. बहुत बढिया प्रस्तुति-

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  4. aapke sabdon va lekhan ke sang aapki rachna anmol hai

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  5. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज शुक्रवार (13-12-13) को "मजबूरी गाती है" (चर्चा मंच : अंक-1460) पर भी है!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  6. बेहतरीन अंदाज़..... सुन्दर
    अभिव्यक्ति.......

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