Saturday, May 12, 2018

किया "इजहारे" मुहब्बत....कुसुम कोठारी


शाहजहां ने बनवाकर ताजमहल
याद मे मुमताज के, 
डाल दिया आशिकों को परेशानी मे।

आशिक ने लम्बे "इंतजार" के बाद 
किया "इजहारे" मुहब्बत

"नशा" सा छाने लगा था दिलो दिमाग पर 
कह उठी महबूबा अपने माही से
कब बनेगा ताज हमारे सजदे में
डोल उठा! खौल उठा!! बोला
ये तो निशानियां है याद में 
बस जैसे ही होगी आपकी आंखें बंद
बंदा शुरू करवा देगा एक उम्दा महल

कम न थी जानेमन भी
बोली अदा से लो कर ली आंखें बंद
बस अब जल्दी से प्लाट देखो
शुरू करो बनवाना एक "ख्वाब" गाह
जानु की निकल गई जान
कहां फस गया बेचारा मासूम आशिक
पर कम न था बोला

एक मकबरे पे क्यों जान देती हो
चलो कहीं और घूम आते हैं
अच्छे से नजारों से जहाँ भरा है,
बला कब टलने वाली थी
बोली चलो ताज नही एक फ्लैट ही बनवादो
चांद तारों से नही" गुलाबों" से ही सजा दो 
"उसे पाने की कोशिशें तमाम हुई सरेआम हुई" 
अब खुमारी उतरी सरकार की बोला
छोड़ो मैं पसंद ही बदल रहा हूं
आज से नई गर्लफ्रेंड ढूंढता हूं

मुझमे शाहजहां बनने की हैसियत नही
तुम मुमताज बनने की जिद पर अड़ी रहो
देखता हूं कितने और ताजमहल बनते हैं
हम गरीबों की "वफा" का माखौल उडाते है
जीते जी जिनके लिए सकून का
एक पल मय्यसर नही
मरने पर उन्हीं के लिये ताज बनवाते हैं।
 -कुसुम कोठारी 

Friday, May 11, 2018

औरत.....मनीषा गुप्ता

तमाम उम्र एक छत के नीचे
निकाल कर औरत ......
अपनों से एक सवाल करती है ...!

क्या वज़ूद है मेरा 
सात फेरो संग फ़र्ज़
के बोझ तले दब जाना...!

माँ बन कर 
ममता में पिघल जाना .....!

या मायके की दहलीज़ से निकल
ससुराल की ड्योढ़ी पर सर को झुकना ....!

क्या सोचा किसी ने कभी
दर्द मुझ को भी छूता है ......!

मेरे दिल को भी 
प्यार भरे शब्दो का एहसास होता है ...!

न मायके की छत ने दिया नाम 
मुझे अपना........!

न ससुराल ने कभी मुझे
मेरे वज़ूद में सँवारा ......!

क्यों दुखती है कोई रग 
बड़ी शोर मचा कर .......!

क्यों आज फिर एक मन
मायूस हुआ हारा ......!

-मनीषा गुप्ता

Thursday, May 10, 2018

जफ़ा-ए-उल्फ़त....श्वेता सिन्हा

पूछो न बिना तुम्हारे कैसे सुबह से शाम हुई
पी-पीकर जाम यादों के ज़िंदगी नीलाम हुई

दर्द से लबरेज़ हुआ ज़र्रा-ज़र्रा दिल का
लड़खड़ाती हर साँस ख़ुमारी में बदनाम हुई

इंतज़ार, इज़हार, गुलाब, ख़्वाब, वफ़ा, नशा
तमाम कोशिशें सबको पाने की सरेआम हुई

क्या कहूँ वो दस्तूर-ए-वादा निभा न सके 
वफ़ा के नाम पर रस्म-ए-मोहब्बत आम हुई

ना चाहा पर दिल ने तेरा दामन थाम लिया
तुझे भुला न सकी हर कोशिश नाकाम हुई

बुत-परस्ती की तोहमत ने बहुत दर्द दे दिया
जफ़ा-ए-उल्फ़त मेरी इबादत का इनाम हुई



न ग़ुबार में न गुलाब में ................अदा ज़ाफ़री


न ग़ुबार में न गुलाब में मुझे देखना
मेरे दर्द की आब-ओ-ताब में मुझे देखना

 किसी वक्त शाम मलाल में मुझे सोचना
कभी अपने दिल की किताब में मुझे देखना

किसी धुन में तुम भी जो बस्तियों को त्याग दो
इसी रह-ए-ख़ानाख़राब में मुझे देखना

किसी रात माह-ओ-नजूम से मुझे पूछना
कभी अपनी चश्म-पुर-आब में मुझे देखना

 इसी दिल से हो कर गुज़र गए कई कारवां
की हिज्रतों के ज़ाब में मुझे देखना

मैं न मिल सकूँ भी तो क्या हुआ कि फसाना हूँ
नई दास्तां नए बाब में मुझे देखना

मेरे ख़ार ख़ार सवाल में मुझे ढूँढना
मेरे गीत में मेरे ख़्वाब में मुझे देखना

मेरे आँसूओं ने बुझाई थी मेरी तश्नगी
इसी बर्गज़ीदा सहाब में मुझे देखना

वही इक लम्हा दीद था कि रुका रहा
मेरे रोज़-ओ-शब के हिसाब में मुझे देखना

जो तड़प तुझे किसी आईने में न मिल सके
तो फिर आईने के जवाब में मुझे देखना

-अदा ज़ाफ़री

Wednesday, May 9, 2018

खाली दोनों हाथ हैं.....कल्पना सक्सेना

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सांस गई पहचान गई है
अब कोई पहचान नहीं
टैग लगाकर मुझे लिटाया
जब  से मुझ में जान नहीं

बड़ा ऐंठता फिरता था मैं
भरकर सदा जुनून से
अब तो मेरा तन भी
खाली है मेरे ही खून से

साथ सभी थे जीवन भर जो
वो भी अब ना साथ हैं
अब ना कुछ भी पास में मेरे
खाली दोनों हाथ हैं

रंग बिरंगे कपड़े पहने
सदा रहा मैं क्यूँ इतराता
आखिर मैंने पाया कफन
जो सबको पहनाया जाता

बड़ी कमाई दौलत जो थी
वो भी अब ना पास है
दो गज मिले जमीं अब तो
या कुछ लकड़ी की आस है

-कल्पना सक्सेना

Tuesday, May 8, 2018

कहानी अधूरी,अनुभूति पूरी-प्रेम की......श्वेता सिन्हा


उम्र के बोझिल पड़ाव पर
जीवन की बैलगाड़ी पर सवार
मंथर गति से हिलती देह
बैलों के गलेे से बंधा टुन-टुन
की आवाज़ में लटपटाया हुआ मन
अनायास ही एक शाम
चाँदनी से भीगे 
गुलाबी कमल सरीखी
नाजुक पंखुड़ियों-सी चकई को देख
हिय की उठी हिलोर में डूब गया
कुंवारे हृदय के
प्रथम प्रेम की अनुभूति से बौराया
पीठ पर सनसनाता एहसास बाँधे
देर तक सिहरता रहा तन
मासूम हृदय की हर साँस में 
प्रेम रस के मदभरे प्याले की घूँट भरता रहा
मदमाती पलकें झुकाये 
भावों के समुंदर में बहती चकई
चकवा के पवित्र सुगंध से विह्वल  
विवश मर्यादा की बेड़ी पहने
अनकहे शब्दों की तरंगों से आलोड़ित 
मन के कोटर के कंपकंपाते बक्से के
भीतर ही भीतर
गूलर की कलियों-सी प्रस्फुटित प्रेम पुष्प
छुपाती रही 
तन के स्फुरण से अबोध
दो प्यासे मन का अलौकिक मिलन
आवारा बादलों की तरह
अठखेलियाँ करते निर्जन गगन में
संवेदनाओं के रथ पर आरुढ़
प्रेम की नयी ऋचाएँ गढ़ते रहे
स्वप्नों के तिलिस्म से भरा अनकहा प्रेम
यर्थाथ के खुरदरे धरातल को छूकर भी
विलग न हो सका
भावों को कचरकर देहरी के पाँव तले
लहुलुहान होकर भी
विरह की हूक दबाये
अविस्मरणीय क्षणों की 
टीसती अनुभूतियों को
अनसुलझे प्रश्नों के कैक्टस को अनदेखा कर
नियति मानकर श्रद्धा से
पूजा करेगे आजीवन
प्रेम की अधूरी कहानी की
पूर्ण अनुभूतियों को।

-श्वेता सिन्हा

Monday, May 7, 2018

हर उम्र को जीना चाहती हूँ.....निधि सिंघल

जब भी यह सवाल कोई पूछता है,
मैं सोच में पड़ जाती हूँ,

बात यह नहीं, कि मैं,
उम्र बताना नहीं चाहती हूँ,
बात तो यह है, की,
मैं हर उम्र के पड़ाव को,
फिर से जीना चाहती हूँ,
इसलिए जबाब नहीं दे पाती हूँ,

मेरे हिसाब से तो उम्र,
बस एक संख्या ही है,

जब मैं बच्चो के साथ बैठ,
कार्टून फिल्म देखती हूँ,
उन्ही की, हम उम्र हो जाती हूँ,
उन्ही की तरह खुश होती हूँ,
मैं भी तब सात-आठ साल की होती हूँ,

और जब गाने की धुन में पैर थिरकाती हूँ,
तब मैं किशोरी बन जाती हूँ,

जब बड़ो के पास बैठ गप्पे सुनती हूँ,
उनकी ही तरह, सोचने लगती हूँ,

दरअसल मैं एकसाथ,
हर उम्र को जीना चाहती हूँ,

इसमें गलत ही क्या है?
क्या कभी किसी ने,
सूरज की रौशनी, या,
चाँद की चांदनी, से उम्र पूछी?

या फिर खल खल करती,
बहती नदी की धारा से उम्र पूछी?

फिर मुझसे ही क्यों?

बदलते रहना प्रकृति का नियम है,
मैं भी अपने आप को,
समय के साथ बदल रही हूँ,

आज के हिसाब से,
ढलने की कोशिश कर रही हूँ,

कितने साल की हो गयी मैं,
यह सोच कर क्या करना?

कितनी उम्र और बची है,
उसको जी भर जीना चाहती हूँ,

एकदिन सब को यहाँ से विदा लेना है,
वह पल, किसी के भी जीवन में,
कभी भी आ सकता है,

फिर क्यों न हम,
हर पल को मुठ्ठी में, भर के जी ले,
हर उम्र को फिर से, एक बार जी ले..

-निधि सिंघल