Thursday, September 18, 2025

ई-रिक्शा


पत्नी का हाथ थामें टहलते हुए पार्क के गेट से बाहर निकल ही रहा था कि
वहीं खड़े रिक्शाचालक ने उससे पूछ लिया।

"भई रिक्शा तो मैं ले लेता! लेकिन मुझे चलाना नहीं आता।"

वह पत्नी की ओर देख उस हमउम्र रिक्शा चालक से मजाक कर गया। 
उसकी बात सुन रिक्शा चालक को भी हंसी आई।


"नहीं साहब! मेरा मतलब था कि आपको कहीं जाना हो तो मैं छोड़ दूं।"

"जाना तो है लेकिन वापस छोड़ना यही होगा।" उसकी पहेली जैसी बातों को पत्नी समझ पाती उससे पहले ही सड़क के उस पार पार्किंग एरिया में गाड़ी संग इंतजार करते ड्राइवर को एक हाथ हिला थोड़ा और इंतजार करने का इशारा कर वह पत्नी का हाथ थामें रिक्शे की पिछली सीट पर जा बैठा।"

बताइए साहब! कहां जाना है?" रिक्शा चालक ने रिक्शा आगे बढ़ा दिया।

"स्टेशन वाले हनुमान जी के दर्शन करवा दो!" उसके इतना कहते ही रिक्शा थोड़ा आगे बढ़ स्टेशन जाने वाली मुख्य सड़क की ओर मुड़ गया।

पत्नी संग मुश्किल से रिक्शे की सीट में खुद को एडजस्ट करने की कोशिश करते हुए उसने रिक्शा चालक से यूंही बातचीत की शुरुआत कर दी।

"दिन भर में कितना कमा लेते हो इस रिक्शे से?"

"दिन भर में पेट भरने लायक कमाना भी अब मुश्किल होता है साहब! और अगर किसी दिन रिक्शे की मरम्मत करवानी पड़ी तो भूखे पेट सोने की नौबत आ जाती है।"

"लेकिन अब तो ई-रिक्शा खूब चल रहा है! उसे चलाने में मेहनत भी कम है और
कमाई ज्यादा, वह क्यों नहीं ले लेते?"

"कीमत भी तो ज्यादा है ना साहब! पेट काटकर मैंने भी कुछ पैसे जोड़े हैं
लेकिन ई-रिक्शा अभी सपना है।"

"तुम्हारे लायक एक काम है जिससे तुम्हारे इसी रिक्शे से ई-रिक्शा
वाला सपना सच होने में थोड़ी मदद हो जाएगी! करोगे?"

"करेंगे साहब! क्यों नहीं करेंगे?"

"तनख्वाह भी मिलेगी!"

"तनख्वाह!" किराए की जगह तनख्वाह सुन रिक्शाचालक को आश्चर्य हुआ।

"हां रुपए रोज नहीं मिलेंगे और ना ही तनख्वाह में रविवार या छुट्टी के कटेंगे!"

"लेकिन साहब करना क्या होगा?"

"तुम्हें रोज सुबह दस बजे अपने रिक्शे से मुझे मेरे घर से मेरे दफ्तर पहुंचाना होगा।" पति द्वारा उस रिक्शा चालक को मौखिक नियुक्ति पत्र मिलता देख उसकी पत्नी अपनी जिज्ञासा रोक नहीं पाई बीच में ही बोल पड़ी।

"लेकिन ड्राइवर का क्या?"

"मोहतरमा! उसकी तनख्वाह भी दी जाएगी क्योंकि
गाड़ी और ड्राइवर हम आप के हवाले कर रहे हैं।"

"क्यों?"

"ताकि आप फिर से सुबह-सुबह गोल्फ कोर्स जाना शुरू कर सके और हम दोनों पहले की तरह रिक्शे की सीट में आराम से फिट हो सके।"

पचपन वर्ष की उम्र में भी पूरी तरह चुस्त वह अपनी पत्नी को भी सेहत के प्रति सजग होने का संकेत दे गया और कई वर्ष पहले पीछे छूट चुके अपने पसंदीदा खेल का नाम सुन उसकी पत्नी के चेहरे पर भी एक ताजी मुस्कान छा गई।

पति-पत्नी के आपसी गुफ्तगू को अल्पविराम मिला देख रिक्शा चालक ने उसके संग अपने अधूरे समझौते पर उसकी पक्की मोहर लगवाना जरूरी समझा

"साहब! अपना घर दिखा दीजिए और दफ्तर बता दीजिए।"

"यह सामने चौराहे के बगल में जो पहला बंगला देख रहे हो ना! वही मेरा घर है और यहाँ से रोज मुझे मेरे दफ्तर यानी यहां के हाईकोर्ट पहुंचाना है।" उसने स्टेशन से पहले मोड वाले चौराहे के बगल में लाइन से खड़े बंगलों में से एक बंगले की ओर इशारा किया।

बंगले को एक नजर गौर से देख रिक्शा चालक ने चौराहे से रिक्शा स्टेशन वाले हनुमान मंदिर की ओर मोड़ लिया।

"हाईकोर्ट में आप क्या करते हैं साहब?" उसकी जमीन से जुड़ी सादगी देख रिक्शा चालक जिज्ञासावश उससे पूछ बैठा।

"बस! वकीलों और गवाहों को सुनता रहता हूं!"

"समझ गया साहब! मेहनत के बदले तनख्वाह का फैसला करने के बावजूद आपने किसी के साथ अन्याय नहीं होने दिया। जरूर आप जज होंगे। है ना साहब?" वह मुस्कुराता चुप रहा किंतु पत्नी उसकी ओर देख बोल पड़ी

"अदालत से बाहर भी आप अपनी आदत से बाज नहीं आते!"



- पुष्पा कुमारी "पुष्प"

Thursday, September 11, 2025

पूरा डिब्बा वात्सल्य रस से सराबोर था

 वात्सल्य


ट्रेन का खचाखच भरा डिब्बा बेतहाशा गर्मी,
सामने वाली बर्थ पर एक माँ अपने बच्चे को चुप कराने में लगी। बच्चा रोता रहा,
माँ की डांट भी उसे चुप नहीं करा सकी, इस तरफ की बर्थ पर एक माँ अपने लाडले को 
दूध की बोतल मुंह में दिए थी,


रोता बच्चा चुप होकर सो गया।
माँ ने सामने वाले माँ और जिद करते बच्चे को देखा,
भूख से वह भी रो रहा था, कोई डांट-फटकार उसे चुप नहीं करा पा रही थी,
भूखा है बच्चा तुम्हारा। कब से देख रही हूं, ...
बुरा न मानो तो ये बचा दूध उसे पिला दो,
दूसरी मां ने बिना ना-नुकुर किए बच्चे के मुख में बोतल दे दी।
बच्चे की क्या जात?

कम्पार्टमेन्ट में कुछ आवाजें. किसी ने कहा-और मां की भी कोई जाति होती है ?
पूरा डिब्बा वात्सल्य रस से सराबोर था।
दोनों माताएं अपने लाडले को देख आश्वस्त हुई जा रही थी। 


Thursday, August 21, 2025

सोच की गुलामी

 सोच की गुलामी



दुनिया बदल रही है, लोगों की सोच की 
तालमेल उसमें बैठ रहा है या नहीं,
यह व्यवहार से झलक जाता है

  रे !! जरा रास्ता छोड़कर बैठो, मेरा पैर लगा तो सारा मोगरा ट्रेन में बिखर जाएगा
" मालन " को इतना कह वो किन्नर मुंबई लोकल के फर्स्ट क्लास के डिब्बे में चढ़ गया।

जीन्स पर लम्बा कुर्ता और खादी की कोटी पहने वो किन्नर मेरे करीब आने लगा, 
उसकी वेशभूषा देख मामाला कुछ अलग लग रहा था, परन्तु यह सोच हावी रही 
ये पैसे मांगेगा ज़रूर, यही सोचते हुए मांगे उसे रुपए देने के लिए अपने 
पर्स में हाथ डाला इससे पहले मैं उसे रुपए देती इससे पहले उसने अपने 
कंधे पर झूलते हुए झोले से तीन साड़ियां निकाली और कहने लगा रु. नहीं 
चाहिए दीदी, हो सके तो इसमें से एक साड़ी खरीद लीजिए, 
मुझे ताली बजा कर मांगने वाली छवि से निकलने में मदद मिलेगी।

उसके अनुरोधित स्वाभिमान के आगे 
मेरी ग़लत सोच लड़खड़ा गई और 
मैंने वे तीनों साड़ियां उससे खरीद ली

-डॉ. वर्षा महेश
16 जुलाई की मधुरिमा से

Tuesday, July 29, 2025

ये सफ़र आशिकी ने काट दिया

 

Sunday, December 29, 2024

गुलाबी ठंडक लिए, महीना दिसम्बर हुआ


कोहरे का घूंघट,
हौले से उतार कर।
चम्पई फूलों से,
रूप का सिंगार कर।

अम्बर ने प्यार से,
धरती को जब छुआ।
गुलाबी ठंडक लिए,
महीना दिसम्बर हुआ।

धूप गुनगुनाने लगी,
शीत मुस्कुराने लगी।
मौसम की ये खुमारी,
मन को अकुलाने लगी।

आग का मीठापन जब,
गुड़ से भीना हुआ।
गुलाबी ठंडक लिए,
महीना दिसम्बर हुआ।

हवायें हुई संदली,
चाँद हुआ शबनमी।
मोरपंख सिमट गए,
प्रीत हुई रेशमी।

बातों-बातों में जब,
दिन कहीं गुम हुआ।
गुलाबी ठंडक लिए,
महीना दिसम्बर हुआ।


-पवन कुमार मिश्र






Tuesday, December 17, 2024

तुम्हारी पलकों की कोर पर ..... स्मृति आदित्य पाण्डेय ''फाल्गुनी''



कुछ मत कहना तुम
मैं जानती हूँ
मेरे जाने के बाद
वह जो तुम्हारी पलकों की कोर पर
रुका हुआ है
चमकीला मोती
टूटकर बिखर जाएगा
गालों पर
और तुम घंटों अपनी खिड़की से
दूर आकाश को निहारोगे
समेटना चाहोगे
पानी के पारदर्शी मोती को,
देर तक बसी रहेगी
तुम्हारी आँखों में
मेरी परेशान छवि
और फिर लिखोगे तुम कोई कविता
फाड़कर फेंक देने के लिए...
जब फेंकोगे उस
उस लिखी-अनलिखी
कविता की पुर्जियाँ,
तब नहीं गिरेगी वह
ऊपर से नीचे जमीन पर
बल्कि गिरेगी
तुम्हारी मन-धरा पर
बनकर काँच की किर्चियाँ...
चुभेगी देर तक तुम्हें
लॉन के गुलमोहर की नर्म पत्तियाँ। 


स्मृति आदित्य पाण्डेय ''फाल्गुनी''

(पुस्तक हथेलियों पर गुलाबी अक्षर पृष्ठः 82-83)


Monday, November 18, 2024

स्मृतियों की झालर

 स्मृतियों की झालर



पूरे चांद की आधी रात में
एक मधुर कविता
पूरे मन से बने
हमारे अधूरे रिश्ते के नाम लिख रही हूं
चांद के चमकीले उजास में
सर्दीली रात में
तुम्हारे साथ नहीं हूं लेकिन

रेशमी स्मृतियों की झालर
पलकों के किनारे पर झूल रही है
और आकुल आग्रह लिए
तुम्हारी एक कोमल याद
मेरे दिल में चुभ रही है..

चांद का सौन्दर्य
मेरी कत्थई आंखों में सिमट आया है
और तुम्हारा प्यार
मन का सितार बन कर झनझनाया है
चांद के साथ मेरे कमरे में उतर आया है

- स्मृति आदित्य 'फाल्गुनी'

साभार- हथेलियों पर गुलाबी अक्षर