Sunday, June 30, 2013
दिये जितने बुझाये थे हवा ने ................वज़ीर आग़ा
लुटा कर हमने पत्तों के ख़ज़ाने
हवाओं से सुने क़िस्से पुराने
हवाओं से सुने क़िस्से पुराने
खिलौने बर्फ़ के क्यूं बन गये हैं
तुम्हारी आंख में अश्कों के दाने
चलो अच्छा हुआ बादल तो बरसा
जलाया था बहुत उस बेवफ़ा ने
ये मेरी सोचती आँखे कि जिनमे
गुज़रते ही नहीं गुज़रे ज़माने
बिगड़ना एक पल में उसकी आदत
लगीं सदियां हमें जिसको मनाने
हवा के साथ निकलूंगा सफ़र को
जो दी मुहलत मुझे मेरे ख़ुदा ने
सरे-मिज़गा वो देखो जल उठे हैं
दिये जितने बुझाये थे हवा ने
- वज़ीर आग़ा
वजीर आगा के बारे में बल्देव मिर्जा ने ठीक ही कहा है..
" वजीर आगा के लिए कविता शब्दों की पहुँच से परे ले जाने वाली एक आध्यात्मिक यात्रा है..
वे कुआँरी और विरली पगडंडियों पर चलते हुए बीथोवन की तरह प्रकृती की आत्मा को जगाते है"
सौजन्यः अशोक खाचर
http://ashokkhachar56.blogspot.in/2013/06/waziraghakigazale.html
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घरौंदे............हरकीरत हीर(प्रवासी कविता)
उसने कहा :
तुम तो शाख से गिरा
वह तिनका हो
जिसे बहाकर कोई भी
अपने संग ले जाए
मैंने कहा :
शाख से गिरे तिनके भी तो
घरौंदे बन जाते हैं
किसी परिंदे के।
--- हरकीरत हीर
Friday, June 28, 2013
आप क्या जाने मुझको समझते हैं क्या ?.............पता नहीं इसे किसने लिखा है
आप
आप क्या जाने मुझको समझते हैं क्या ?
मै तो कुछ भी नहीं
आप क्या जाने मुझको समझते हैं क्या ?
मै तो कुछ भी नहीं
इस क़दर प्यार
इतनी बड़ी भीड़ का मै रखूँगा कहाँ ?
इस क़दर प्यार रखने के काबिल नहीं
मेरा दिल मेरी जान
मुझको इतनी मोहब्बत ना दो दोस्तों -2
सोच लो दोस्तों
इस क़दर प्यार कैसे संभालूँगा मै ?
मै तो कुछ भी नहीं
प्यार ?
प्यार इक शख्स का अगर मिल सके तो
बड़ी चीज़ है जिंदगी के लिए
आदमी को मगर ये भी मिलता नहीं
ये भी मिलता नहीं
मुझको इतनी मोहब्बत मिली आपसे -2
ये मेरा हक नहीं मेरी तकदीर है
मै ज़माने की नजरो में कुछ न था -2
मेरी आँखों में अबतक वो तस्वीर है
इस मोहब्बत के बदले मै क्या नज़र दूँ ?
मै तो कुछ भी नहीं
इज्ज़ते
शोहरते
चाहते
उल्फ़ते
कोई भी चीज़ दुनिया में रहती नहीं
आज मै हु जहा कल कोई और था -2
ये भी इक दौर है वो भी इक दौर था
आज इतनी मोहब्बत न दो दोस्तों -2
कि मेरे कल की खातिर न कुछ भी रहे
आज का प्यार थोडा बचा कर रखो -2
मेरे कल के लिए
कल ?
कल जो गुमनाम है
कल जो सुनसान है
कल जो अनजान है
कल जो वीरान है
मै तो कुछ भी नहीं हूँ
मै तो कुछ भी नहीं
-पता नहीं इसे किसने लिखा है
मुझे अच्छी और सारगर्भित लगी ये रचना
मुझे अच्छी और सारगर्भित लगी ये रचना
जो मंजर तलाश करता है....अजीज अंसारी
जो फन1 में फिक्र2 के मंजर3 तलाश करता है
वो राहबर4 भी तो बेहतर तलाश करता है
न जाने कौन सा पैकर5 तलाश करता है
फकीर बनके वो घर-घर तलाश करता है
बहादुरों की तो लाशें पड़ी हुई हैं मगर
वो मेरा जिस्म, मेरा सर तलाश करता है
यकीं जरा भी नहीं अपने जोरोबाजू6 पर
हथेलियों में मुकद्दर तलाश करता है
मैं उसके वास्ते गुलदस्ता लेकर आया हूं
वो मेरे वास्ते पत्थर तलाश करता है
हमारे कत्ल को मीठी जुबान7 है काफी
अजीब शख्स है खंजर8 तलाश करता है
परिन्दे उसको खलाओं में ढूंढ आए 'अजीज'
बशर अजल9 से जमीं पर तलाश करता है।
- अजीज अंसारी
1. कला 2. सोच-विचार 3.दृश्य 4. रास्ता बताने वाला 5. शरीर 6. बाजुओं की शक्ति 7. भाषा-बोली 8. छुरी-चाकू 9. दुनिया का पहला दिन
Thursday, June 27, 2013
ललकारो न मेरी शक्ति को...............नीना वाही (अप्रवासी भारतीय)
खोल दे पिंजरा, उड़ने दे मुझे
उन्मुक्त पवन सा, उड़ने दे मुझे
नील गगन थी थांव मेरी
पंख हैं कोमल कठोर इरादे
उड़ने दे मुझे, उड़ने दे मुझे
खिलने दे मुझे, मुझे खिलने दे
कोमल कली जान न मसल मुझे
खिलने से पहले ही न कुचल मुझे
महकने दे मुझे, सुवासित पुष्प बनूं मैं
खिलने दे मुझे, मुझे खिलने दे
पढ़ने दे मुझे, पढ़ने दे मुझे
ज्ञान ही है शक्ति मेरी
विद्यालय ही है आलय मेरा
घर के घेरे में न घेर मुझे
पढ़ने दे मुझे, पढ़ने दे मुझे,
ओस की बूंद सी हूं मैं
शीतलता ही है तासीर मेरी
न झोंक मुझे संघर्षों की तपती लू में
सुखा दे जो मेरा ही अस्तित्व
भाई है तू मेरा तो बांध मुझे राखी
रक्षा की तूने मेरी रक्षक बनूं मैं तेरी
शक्ति मुझमें भी है भूल न जाना
सम्मान करो मेरी शक्ति का
ललकारो न मेरी शक्ति को।
उन्मुक्त पवन सा, उड़ने दे मुझे
नील गगन थी थांव मेरी
पंख हैं कोमल कठोर इरादे
उड़ने दे मुझे, उड़ने दे मुझे
खिलने दे मुझे, मुझे खिलने दे
कोमल कली जान न मसल मुझे
खिलने से पहले ही न कुचल मुझे
महकने दे मुझे, सुवासित पुष्प बनूं मैं
खिलने दे मुझे, मुझे खिलने दे
पढ़ने दे मुझे, पढ़ने दे मुझे
ज्ञान ही है शक्ति मेरी
विद्यालय ही है आलय मेरा
घर के घेरे में न घेर मुझे
पढ़ने दे मुझे, पढ़ने दे मुझे,
ओस की बूंद सी हूं मैं
शीतलता ही है तासीर मेरी
न झोंक मुझे संघर्षों की तपती लू में
सुखा दे जो मेरा ही अस्तित्व
भाई है तू मेरा तो बांध मुझे राखी
रक्षा की तूने मेरी रक्षक बनूं मैं तेरी
शक्ति मुझमें भी है भूल न जाना
सम्मान करो मेरी शक्ति का
ललकारो न मेरी शक्ति को।
---नीना वाही (अप्रवासी भारतीय)
Wednesday, June 26, 2013
कलम, आज उनकी जय बोल...............राष्ट्रकवि श्री रामधारी सिंह दिनकर की कविता
राष्ट्रकवि श्री रामधारी सिंह दिनकर की कविता
(इस रचना पर मेरी नजर वेब दुनिया पर सर्च करने के समय पड़ी)
जला अस्थियां बारी-बारी
चिटकाई जिनमें चिंगारी,
जो चढ़ गए पुण्यवेदी पर
लिए बिना गर्दन का मोल।
कलम, आज उनकी जय बोल
जो अगणित लघु दीप हमारे
तूफानों में एक किनारे,
जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन
मांगा नहीं स्नेह मुंह खोल।
कलम, आज उनकी जय बोल
पीकर जिनकी लाल शिखाएं
उगल रही सौ लपट दिशाएं,
जिनके सिंहनाद से सहमी
धरती रही अभी तक डोल।
कलम, आज उनकी जय बोल
अंधा चकाचौंध का मारा
क्या जाने इतिहास बेचारा,
साखी हैं उनकी महिमा के
सूर्य चन्द्र भूगोल खगोल।
कलम, आज उनकी जय बोल...
चिटकाई जिनमें चिंगारी,
जो चढ़ गए पुण्यवेदी पर
लिए बिना गर्दन का मोल।
कलम, आज उनकी जय बोल
जो अगणित लघु दीप हमारे
तूफानों में एक किनारे,
जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन
मांगा नहीं स्नेह मुंह खोल।
कलम, आज उनकी जय बोल
पीकर जिनकी लाल शिखाएं
उगल रही सौ लपट दिशाएं,
जिनके सिंहनाद से सहमी
धरती रही अभी तक डोल।
कलम, आज उनकी जय बोल
अंधा चकाचौंध का मारा
क्या जाने इतिहास बेचारा,
साखी हैं उनकी महिमा के
सूर्य चन्द्र भूगोल खगोल।
कलम, आज उनकी जय बोल...
राष्ट्रकवि श्री रामधारी सिंह दिनकर की कविता
Monday, June 24, 2013
दुनिया को बदलने की ताकत है............महाराज कृष्ण संतोषी
चाय पीते हुए
मुझे लगता है
जैसे पृथ्वी का सारा प्यार
मुझे मिल रहा होता है
कहते हैं
बोधिधर्म की पलकों से
उपजी थीं चाय की पत्तियां
पर मुझे लगता है
भिक्षु नहीं
प्रेमी रहा होगा बोधिधर्म
जिसने रात-रात भर जागते हुए
रचा होगा
आत्मा के एकान्त में
अपने प्रेम का आदर्श!
मुझे लगता है
दुनिया में
कहीं भी जब दो आदमी
मेज के आमने-सामने बैठे
चाय पी रहे होते हैं
तो वहां स्वयं आ जाते हैं तथागत
और आसपास की हवा को
मैत्री में बदल देते हैं
आप विश्वास करें
या नहीं
पर चाय की प्याली में
दुनिया को बदलने की ताकत है...।
- महाराज कृष्ण संतोषी
Sunday, June 23, 2013
सूद में क़िस्त जाती रहती है..............अनवारे इस्लाम
झूठ बोला है किस सफाई से
ऐसी उम्मीद थी न भाई से
इतना कहते हुए झिझक कैसी
काम बिगड़े भी है भलाई से
बात घर की है घर में रहने दे
फ़ायदा क्या है जग हंसाई से
बरकतें ही न घर की उड़ जाएँ
बचके रहिए ग़लत कमाई से
ऐसी उम्मीद थी न भाई से
इतना कहते हुए झिझक कैसी
काम बिगड़े भी है भलाई से
बात घर की है घर में रहने दे
फ़ायदा क्या है जग हंसाई से
बरकतें ही न घर की उड़ जाएँ
बचके रहिए ग़लत कमाई से
मोड़ आने लगा कहानी में
रोक दे दास्ताँ सफ़ाई से
सूद में क़िस्त जाती रहती है
अस्ल चुकता नहीं अदाई से
-अनवारे इस्लाम
सौजन्य अशोक खाचर
http://ashokkhachar56.blogspot.in/2013/06/mizaajkaisahaianwareislaam.html
Saturday, June 22, 2013
अस्थियों के बीच देवभूमि-काव्य...............भारती दास
अस्थियों से हैं घिरे केदार
देव भूमि में हा हा-कार
प्रकृति का यूँ कहर है बरपे
असंख्य मौत में लोग है तड़पे
हंसी-खुशी जो निकले घर से
लौट सके न वो फिर तन से
सचमुच रूद्र बन गए हैं काल
किस लिए नेत्र हुए हैं लाल
अधम हुई है मानवता
विकराल हुई है बर्बरता
अनन्त काल से ही कुछ मानव
करता है अपराध- उपद्रव
चरित्र-चिंतन और व्यवहार
मनुष्य ने किया केवल खिलवाड़
प्रकृति की कोमल हरियाली
जंगल कटी- मिटी खुशहाली
बादल फटना बारिश होना
नदियों में बाढ़ों का आना
ये कुदरत की विनाशलीला
अनगिनत जीवन को छीना
जो प्रकृति थी जीवन दायी
अब हुई है वो दुख-दायी
सुरसरी की निर्मल वो धारा
रौंद दिया सपनों को सारा
पहले हम यही थे सुनते
शिव है जटा में गंग समेटे
अब शिव हैं गंगा में लेटे
पृथ्वी का हर पाप लपेटे
या शिव में कुछ शक्ति नहीं है
या जग में कुछ भक्ति नहीं है
शायद कलयुग हुआ शेष है
धर्मयुग का हुआ प्रवेश है
किस से कहें किसको समझाये
दर्द-पीड़ा जो मन को सताये
देवभूमि में जो हुए समर्पित
नयन-नीर उनको है अर्पित
ये विनाश इतिहास बनेगा
याद में उनकी अश्क बहेगा
-भारती दास
गांधीनगर,गुजरात
देव भूमि में हा हा-कार
प्रकृति का यूँ कहर है बरपे
असंख्य मौत में लोग है तड़पे
हंसी-खुशी जो निकले घर से
लौट सके न वो फिर तन से
सचमुच रूद्र बन गए हैं काल
किस लिए नेत्र हुए हैं लाल
अधम हुई है मानवता
विकराल हुई है बर्बरता
अनन्त काल से ही कुछ मानव
करता है अपराध- उपद्रव
चरित्र-चिंतन और व्यवहार
मनुष्य ने किया केवल खिलवाड़
प्रकृति की कोमल हरियाली
जंगल कटी- मिटी खुशहाली
बादल फटना बारिश होना
नदियों में बाढ़ों का आना
ये कुदरत की विनाशलीला
अनगिनत जीवन को छीना
जो प्रकृति थी जीवन दायी
अब हुई है वो दुख-दायी
सुरसरी की निर्मल वो धारा
रौंद दिया सपनों को सारा
पहले हम यही थे सुनते
शिव है जटा में गंग समेटे
अब शिव हैं गंगा में लेटे
पृथ्वी का हर पाप लपेटे
या शिव में कुछ शक्ति नहीं है
या जग में कुछ भक्ति नहीं है
शायद कलयुग हुआ शेष है
धर्मयुग का हुआ प्रवेश है
किस से कहें किसको समझाये
दर्द-पीड़ा जो मन को सताये
देवभूमि में जो हुए समर्पित
नयन-नीर उनको है अर्पित
ये विनाश इतिहास बनेगा
याद में उनकी अश्क बहेगा
-भारती दास
गांधीनगर,गुजरात
Friday, June 21, 2013
पंख हैं मेरे पास...............महाराज कृष्ण संतोषी
दुख रखता हूं कलेजे में
इंतजार सुख का करता हूं
इतना जीवन है मेरे आसपास
कि मैं कभी निराश नहीं होता
सफल लोगों के बीच
अपनी असफलता
नहीं मापा फिरता
कड़कती धूप में
वे मुझे देखते हैं
पैदल चलते हुए
और हंसते हैं मेरी दरिद्रता पर
मैं भी हंसता हूं उन पर
यह सोचते हुए
कार नहीं मेरे पास
तो क्या
कवि हूं मैं
पंख हैं मेरे पास
जो उन्हें दिखाई नहीं देते।
- महाराज कृष्ण संतोषी
Thursday, June 20, 2013
वो शख़्स धीरे-धीरे सांसों में आ बसा है.......रोहित जैन
वो शख़्स धीरे-धीरे सांसों में आ बसा है
बन के लकीर हर इक, हाथों में आ बसा है
वो मिले थे इत्तेफ़ाक़न हम हंसे थे इत्तेफ़ाक़न
अब यूं हुआ के सावन आंखों में आ बसा है
काफ़ी थे चंद लम्हे तेरे साथ के सितमगर
ये क्या किया है तूने, ख़्वाबों में आ बसा है
अब तो वो ही है साहिल, तूफ़ान भी वो ही है
कुछ इस तरह से दिल की मौजों में आ बसा है
उम्मीद-ओ-हौंसला भी रिश्ता भी है ख़ला भी
वो ज़िंदगी के सारे नामों में आ बसा है
कुछ रफ़्ता-रफ़्ता आता, मुझको पता तो चलता
वो शख़्स एकदम ही आहों में आ बसा है
उसकी पहुंच गज़ब है, वो देखो किस तरह से
दिन में भी आ बसा है रातों में आ बसा है
क्या बोलता हूं जाने, के पूछती है दुनिया
वो कौन है जो तेरी बातों में आ बसा है।
बन के लकीर हर इक, हाथों में आ बसा है
वो मिले थे इत्तेफ़ाक़न हम हंसे थे इत्तेफ़ाक़न
अब यूं हुआ के सावन आंखों में आ बसा है
काफ़ी थे चंद लम्हे तेरे साथ के सितमगर
ये क्या किया है तूने, ख़्वाबों में आ बसा है
अब तो वो ही है साहिल, तूफ़ान भी वो ही है
कुछ इस तरह से दिल की मौजों में आ बसा है
उम्मीद-ओ-हौंसला भी रिश्ता भी है ख़ला भी
वो ज़िंदगी के सारे नामों में आ बसा है
कुछ रफ़्ता-रफ़्ता आता, मुझको पता तो चलता
वो शख़्स एकदम ही आहों में आ बसा है
उसकी पहुंच गज़ब है, वो देखो किस तरह से
दिन में भी आ बसा है रातों में आ बसा है
क्या बोलता हूं जाने, के पूछती है दुनिया
वो कौन है जो तेरी बातों में आ बसा है।
- रोहित जैन
Tuesday, June 18, 2013
भीतर का पेड़ उग रहा है.............चम्पा वैद
भीतर का पेड़ उग रहा है
जिसके बीज मैं निगल गई थी बचपन में
इसके बड़े होने में पूरे साठ वर्ष लग गए
मेरी नसें इसकी जड़ें हैं
मेरी नाड़ियां इसकी शाखाएं
मेर विचार इसके छोटे बड़े पत्ते
शब्द भीतर अपनी जगह बनाते
उगलने लगते हैं
पिछला सब करा धरा।
- चम्पा वैद
जिसके बीज मैं निगल गई थी बचपन में
इसके बड़े होने में पूरे साठ वर्ष लग गए
मेरी नसें इसकी जड़ें हैं
मेरी नाड़ियां इसकी शाखाएं
मेर विचार इसके छोटे बड़े पत्ते
शब्द भीतर अपनी जगह बनाते
उगलने लगते हैं
पिछला सब करा धरा।
- चम्पा वैद
Sunday, June 16, 2013
पितृ-नमन...............भारती दास
जिनके खून से बना शरीर
अपनाएं उनका हर पीर
जीवन भर माने उपकार
श्रेष्ट बने और करे विचार
अपने पिता का करे सम्मान
अहं तोड़कर बने महान
चरणों मे रखकर हम शीश
पाते हैं निर्मल आशीष
पिता हमारे गैर नहीं हैं
आज उन्हीं का खैर नहीं है
स्वार्थी भावना ओछी सोच
मिटा दिया अपनों की बोध
उन्होंने सब कुछ था हारा
हमको उनसे मिला सहारा
अपनी ममता उन्होंने वारा
उनसे रोशन होता घर सारा
ध्यान हमेशा रहे यही
अपमान मिले ना उन्हें कभी
उम्मीदों का हम किरण बने
उनके जीवन का सुमन बने
-भारती दास
अपने पिता का करे सम्मान
अहं तोड़कर बने महान
चरणों मे रखकर हम शीश
पाते हैं निर्मल आशीष
पिता हमारे गैर नहीं हैं
आज उन्हीं का खैर नहीं है
स्वार्थी भावना ओछी सोच
मिटा दिया अपनों की बोध
उन्होंने सब कुछ था हारा
हमको उनसे मिला सहारा
अपनी ममता उन्होंने वारा
उनसे रोशन होता घर सारा
ध्यान हमेशा रहे यही
अपमान मिले ना उन्हें कभी
उम्मीदों का हम किरण बने
उनके जीवन का सुमन बने
-भारती दास
आज पिता सम्मान पा रहे हैं...........यशोदा
शुभ प्रभात....
आज फादर्स डे
पितृ दिवस
नमन उनको
आज पिता सम्मान पा रहे हैं
कल किसने देखा..
और देखेगा भी कौन..
कि पिता किस हाल में हैं...
खाना गरम मिला या नहीं
... दवा समय पर मिली या नहीं
रात बिछौना का चादर बदला था या नहीं
ये तो अच्छा है कि मेरे पिता की अब स्मृति शेष है..
मैं अपने भाईयों-भाभियों को जानती-पहचानती हूँ
वे होते तो क्या हाल होता उनका
मेरा प्रणाम उनको......
अब सुखी तो हैं वो
क्षमा....
हकीकत लिख गई
सादर
आज फादर्स डे
पितृ दिवस
नमन उनको
आज पिता सम्मान पा रहे हैं
कल किसने देखा..
और देखेगा भी कौन..
कि पिता किस हाल में हैं...
खाना गरम मिला या नहीं
... दवा समय पर मिली या नहीं
रात बिछौना का चादर बदला था या नहीं
ये तो अच्छा है कि मेरे पिता की अब स्मृति शेष है..
मैं अपने भाईयों-भाभियों को जानती-पहचानती हूँ
वे होते तो क्या हाल होता उनका
मेरा प्रणाम उनको......
अब सुखी तो हैं वो
क्षमा....
हकीकत लिख गई
सादर
Saturday, June 15, 2013
"फादर्स-डे"...................."कवि गिरिराज जोशी"
"फादर्स-डे"
कल समूचे विश्व में फादर्स-डे मनाया जाएगा
कल समूचे विश्व में फादर्स-डे मनाया जाएगा
"कवि गिरिराज जोशी"
की एक रचना
पापा!
मुझे लगता था,
'माँ' ने मुझे आपार स्नेह दिया,
आपने कुछ भी नहीं,
आप मुझसे प्यार नहीं करते थे।
मगर पापा!
आज जब जीवन की,
हर छोटी-बड़ी बाधाओं को,
आपके 'वे लम्बे-लम्बे भाषण' हल कर देते है,
मैं प्यार की गहराई जान जाता हूँ....
--कवि गिरिराज जोशी
Friday, June 14, 2013
पहली बारिश, पहला प्यार...........ज्योति जैन
आज बारिश,
लगती है नई।
नए अर्थ समझती है।
पहली बारिश पर,
मिटटी की सौंधी महक,
जैसे
प्रथम प्रेम से परिचय।
फिर बरसे
तो प्रेम-सी ही
शीतलता
कभी तेज बौछार
चुभती तन को,
मानो प्रेम की हो
आक्रामकता
और जब बदली
बरस जाए-
तो व्योम उतना ही
स्वच्छ और निर्मल,
जितना कि प्रेम।
स्पर्श बिना मन को
भिगोने का अहसास
देती है पहली बारिश।
लगती है नई।
नए अर्थ समझती है।
पहली बारिश पर,
मिटटी की सौंधी महक,
जैसे
प्रथम प्रेम से परिचय।
फिर बरसे
तो प्रेम-सी ही
शीतलता
कभी तेज बौछार
चुभती तन को,
मानो प्रेम की हो
आक्रामकता
और जब बदली
बरस जाए-
तो व्योम उतना ही
स्वच्छ और निर्मल,
जितना कि प्रेम।
स्पर्श बिना मन को
भिगोने का अहसास
देती है पहली बारिश।
-ज्योति जैन
Thursday, June 13, 2013
पापा अब भी तुम जादूगर हो.........अपूर्वा रघुवंशी
जब छोटी थी तो सोचती थी
पापा तुम जादूगर हो
हर समस्या का हल है
तुम्हारी बन्द मुट्ठी में
जब बड़ी हुई तो जाना
उलझे हो हर वक्त तुम
मेरी समस्या सुलझाने में
जब छोटी थी तो सोचती थी
पापा ने दुनिया देखी है
जब बड़ी हुई तो जाना
मैं पापा की दुनिया हूँ
जब छोटी थी तो सोचती थी
पापा की जेब में तारे हैं
जब बड़ी हुई तो जाना
मैं पापा की आँखों का तारा हूँ
जब छोटी थी तो सोचती थी
तुम सबसे अच्छे पापा हो
जब बड़ी हुई तो जाना
पापा तुम सबसे अच्छे हो
अब मैं बड़ी हो गई पापा
जान गई हूँ जीवन को
उतना आसान नहीं है यह
जैसा बचपन में लगता था
...पर अब भी
हर मुश्किल का हल
बन्द है तुम्हारी मुट्ठी में
पापा अब भी तुम जादूगर हो
---अपूर्वा रघुवंशी
मधुमिता....12-6-2013
16 जून फादर्स डे पर विशेष
पापा तुम जादूगर हो
हर समस्या का हल है
तुम्हारी बन्द मुट्ठी में
जब बड़ी हुई तो जाना
उलझे हो हर वक्त तुम
मेरी समस्या सुलझाने में
जब छोटी थी तो सोचती थी
पापा ने दुनिया देखी है
जब बड़ी हुई तो जाना
मैं पापा की दुनिया हूँ
जब छोटी थी तो सोचती थी
पापा की जेब में तारे हैं
जब बड़ी हुई तो जाना
मैं पापा की आँखों का तारा हूँ
जब छोटी थी तो सोचती थी
तुम सबसे अच्छे पापा हो
जब बड़ी हुई तो जाना
पापा तुम सबसे अच्छे हो
अब मैं बड़ी हो गई पापा
जान गई हूँ जीवन को
उतना आसान नहीं है यह
जैसा बचपन में लगता था
...पर अब भी
हर मुश्किल का हल
बन्द है तुम्हारी मुट्ठी में
पापा अब भी तुम जादूगर हो
---अपूर्वा रघुवंशी
मधुमिता....12-6-2013
16 जून फादर्स डे पर विशेष
Sunday, June 9, 2013
वट सावित्री पर विशेष रचना.......भारती दास
सावित्री- सत्यवान की, है ये कथा पुरानी
सदियों से बस सुनती आयी ,अनमिट प्रेम कहानी
मद्र-देश के राजा अश्वपति थे, क्षमाशील संतान रहित थे
प्रभास-क्षेत्र में भ्रमण को आये ,ब्रम्हा-प्रिया से वर को पाए
कन्या रूप में उत्पन्न हुई , अश्वपति की पुत्री बनी
कमल सामान विशाल नेत्र थे ,अग्नि सामान प्रचंडतेज थे
राजकुमारी अति लाडली , सावित्री था उसका नाम
सरस्वती सा रूप था मोहक , पाई थी बुद्धि तमाम
थक-हार के राजा बैठे ,योग्य वर ना मिला उन्हें
किससे होगी शादी पुत्री की, इसी सोच में डूबे रहे
हे पुत्री मै हूँ शर्मिंदा ,राजा ने कर जोड़ लिए
अपना वर तुम खुद ही ढूंढो,तुम पे सब कुछ छोड़ दिए
सावित्री ने कहा पिताश्री , आप सदा निश्चिन्त रहें
मै अपना वर ढूंढ पाऊँगी , आप सदा आश्वस्त रहें
कई दिनों से यात्रा करके, सावित्री थक के हारी
क्या कहूँगी मै पिता से, सोच में डूबी थी सुकुमारी
एक कुमार जंगल में रहता, दीखता बहुत ही प्यारा है
लम्बी भुजाएं ऊँचा मस्तक, गौरवर्ण भी न्यारा है
द्युमत्सेन एक राजा थे, पर शत्रु से हारे थे
सत्यवान जो पुत्र थे उनके ,माता-पिता के सहारे थे
सत्य का संभाषण करना, उसका परम धर्मं था
माता-पिता का सेवा करना ,सत्यवान का कर्म था
मंत्र-मुग्ध हो गयी सावित्री ,मन ही मन दिल हार गयी
मन चाहा वर मुझे मिला , यह सोचकर मनुहार हुयी
जिस कार्य से वन को आयी, वो हुआ पूर्ण सब काम
अपना वर मैं ढ़ूंढ़ ही लिया , जो होगा मेरे समान
नारदजी ने बीच में टोका ,सत्यवान अल्पायु है
एक साल ही जीवित रहेगा, एक दोष क्षीणायु है
सावित्री बोली फिर सबसे, एक बार देते है दान
एक बार ही शादी होती ,एकबार करते कन्यादान
पहले का युग सतयुग था, वचन की महता भारी थी
जीवन से बढ़कर वचन थे, जिस पे प्राण भी वारी थी
राजकुमारी की शादी , अतिशीघ्र ही हो गयी
सावित्री सत्यवान को पाकर, अत्यधिक ही प्रसन्न हुयी
सास-ससुर जो नेत्र-हीन थे ,सेवा से संतुष्ट हुए
आशीष देकर सावित्री को, वे दोनों आश्वस्त हुए
हंसी- ख़ुशी व्यतीत हुए दिन ,बरस करीब आने लगा
विषाद बनकर मुनि की बातें , मन को यूँ घबराने लगा
सत्यवान जंगल में आया , सावित्री चुपचाप चली
अपने पति का अनुगमन कर , मन में कुछ तो सोच रही
हुई अचानक सिर में पीड़ा, सत्यवान कराह उठे
हे सुंदरी क्षणभर सोऊंगा , गोद में तेरी “आह” उठे
पीत-वस्त्र - किरीट-धारी, सूर्य समान उदित हुए
एक छाया था कृष्णवर्ण, उसके सम्मुख प्रकट हुए
सावित्री डरी नहीं , बस केवल डटी रही
कर प्रणाम नर श्रेष्ठ को, मधुर वचन कहने लगी
कौन हैं आप कहाँ से आये, यहाँ किसलिए आये हैं
मैं समर्थ हूँ अग्नि समान, मुझको व्यर्थ डराये हैं
यमराज हूँ मैं प्राण को लेता, उचित दंड भी मैं तो देता
जिसकी होती आयु पूरी, उसको लेने मैं खुद आता
यमराज लेकर के प्राण , चलने लगे वो अपने धाम
सावित्री भी साथ चली , राहों से होकर अंजान
यमराज ने कहा प्यार से, तुम नहीं संग आ सकती
बिना आयु समाप्त किये, यमपुरी नहीं जा सकती
मुझे शर्म ना कोई हया है ,मैं अनुगमन करती हूँ
गैर किसी भी नर का नहीं ,अपने पति को नमन करती हूँ
स्त्रियों की गति उसके पति हैं, आप जिसे लेकर चले
पति बिना जीवन कैसा , अरमानों की चिता जले
धरती पर सबका स्थान, पर पतिहीन नारी का मान
नहीं कभी हुआ यहाँ पर , नहीं होता उसका कल्याण
हे पुत्री तुम कुछ वर मांगो, लेकिन मेरे संग ना आओ
यही प्रकृति का नियम बना है, इसको समझो ना घबराओ
सावित्री ने राज्य को माँगा, सास-ससुर के भाग्य को माँगा
जो खुशियाँ रूठ चुकी है ,उस बिखरे सौभाग्य को माँगा
कुछ दूर आगे जाने पर, यमराज कुछ हर्षित हुए
लेकिन वो तो लौटी नहीं ,वे कुछ आश्चर्य चकित हुए
हे भामिनी क्यों जिद करती हो ,क्यों अनहोनी तुम करती हो
आजतक जो विधि ने चाहा ,उसमें अड़चन क्यों बनती हो
दूसरा कोई भी वर मांगों ,लेकिन अपने जिद को छोड़ो
ये जग कितना सुन्दर है ,सुन्दरता से मुंह ना मोड़ो
हे श्रेष्ठ पुरुष क्या कहूँ आपको ,मेरे लिए जग ही सुना है
मेरे पति तो संग आपके, जा रहे अब क्या जीना है
मेरे पिता को सौ पुत्र हो, मैं भी पुत्रवती होऊं
ये वर मुझको दे दे आप ,आप की भक्ति को मैं पाऊँ
ऐसा ही हो हे पुत्री ,पर तुम अब वापस जाओ
बिलम्ब करो ना यूँ मुझको, तुम अपने घर को जाओ
हे श्रेष्ठ पिता पुत्री माना ,वर देकर जो मान दिया
बिना पति के पुत्र हो कैसे, ये कैसा सम्मान दिया
हे पुत्री तुम जीत गयी , तेरी भक्ति से खुश हुआ
सौभाग्यवती बन सदा रहो ,तुमसे अमर ये जग हुआ
सावित्री अपने पति संग, जब अपने घर वापस लौटी
सास-ससुर को नेत्र मिला, राज्य को पाके निहाल उठी
सौ भाई की बहन बनी वो ,सौ पुत्रों की माता
अमर हो गयी कई युगों तक, सावित्री की गाथा
अपनी धर्य विवेक के बल पर, यमराज से भी लड़ पड़ी
अपने पति को वापस पाकर, जग में वो अमर हुई
भारतवर्ष की ये सब नारी ,भारत की शान बढाती है
हमें गर्व है खुद पर क्योंकि, हम भी देश के वासी हैं
----भारती दास
सदियों से बस सुनती आयी ,अनमिट प्रेम कहानी
मद्र-देश के राजा अश्वपति थे, क्षमाशील संतान रहित थे
प्रभास-क्षेत्र में भ्रमण को आये ,ब्रम्हा-प्रिया से वर को पाए
कन्या रूप में उत्पन्न हुई , अश्वपति की पुत्री बनी
कमल सामान विशाल नेत्र थे ,अग्नि सामान प्रचंडतेज थे
राजकुमारी अति लाडली , सावित्री था उसका नाम
सरस्वती सा रूप था मोहक , पाई थी बुद्धि तमाम
थक-हार के राजा बैठे ,योग्य वर ना मिला उन्हें
किससे होगी शादी पुत्री की, इसी सोच में डूबे रहे
हे पुत्री मै हूँ शर्मिंदा ,राजा ने कर जोड़ लिए
अपना वर तुम खुद ही ढूंढो,तुम पे सब कुछ छोड़ दिए
सावित्री ने कहा पिताश्री , आप सदा निश्चिन्त रहें
मै अपना वर ढूंढ पाऊँगी , आप सदा आश्वस्त रहें
कई दिनों से यात्रा करके, सावित्री थक के हारी
क्या कहूँगी मै पिता से, सोच में डूबी थी सुकुमारी
एक कुमार जंगल में रहता, दीखता बहुत ही प्यारा है
लम्बी भुजाएं ऊँचा मस्तक, गौरवर्ण भी न्यारा है
द्युमत्सेन एक राजा थे, पर शत्रु से हारे थे
सत्यवान जो पुत्र थे उनके ,माता-पिता के सहारे थे
सत्य का संभाषण करना, उसका परम धर्मं था
माता-पिता का सेवा करना ,सत्यवान का कर्म था
मंत्र-मुग्ध हो गयी सावित्री ,मन ही मन दिल हार गयी
मन चाहा वर मुझे मिला , यह सोचकर मनुहार हुयी
जिस कार्य से वन को आयी, वो हुआ पूर्ण सब काम
अपना वर मैं ढ़ूंढ़ ही लिया , जो होगा मेरे समान
नारदजी ने बीच में टोका ,सत्यवान अल्पायु है
एक साल ही जीवित रहेगा, एक दोष क्षीणायु है
सावित्री बोली फिर सबसे, एक बार देते है दान
एक बार ही शादी होती ,एकबार करते कन्यादान
पहले का युग सतयुग था, वचन की महता भारी थी
जीवन से बढ़कर वचन थे, जिस पे प्राण भी वारी थी
राजकुमारी की शादी , अतिशीघ्र ही हो गयी
सावित्री सत्यवान को पाकर, अत्यधिक ही प्रसन्न हुयी
सास-ससुर जो नेत्र-हीन थे ,सेवा से संतुष्ट हुए
आशीष देकर सावित्री को, वे दोनों आश्वस्त हुए
हंसी- ख़ुशी व्यतीत हुए दिन ,बरस करीब आने लगा
विषाद बनकर मुनि की बातें , मन को यूँ घबराने लगा
सत्यवान जंगल में आया , सावित्री चुपचाप चली
अपने पति का अनुगमन कर , मन में कुछ तो सोच रही
हुई अचानक सिर में पीड़ा, सत्यवान कराह उठे
हे सुंदरी क्षणभर सोऊंगा , गोद में तेरी “आह” उठे
पीत-वस्त्र - किरीट-धारी, सूर्य समान उदित हुए
एक छाया था कृष्णवर्ण, उसके सम्मुख प्रकट हुए
सावित्री डरी नहीं , बस केवल डटी रही
कर प्रणाम नर श्रेष्ठ को, मधुर वचन कहने लगी
कौन हैं आप कहाँ से आये, यहाँ किसलिए आये हैं
मैं समर्थ हूँ अग्नि समान, मुझको व्यर्थ डराये हैं
यमराज हूँ मैं प्राण को लेता, उचित दंड भी मैं तो देता
जिसकी होती आयु पूरी, उसको लेने मैं खुद आता
यमराज लेकर के प्राण , चलने लगे वो अपने धाम
सावित्री भी साथ चली , राहों से होकर अंजान
यमराज ने कहा प्यार से, तुम नहीं संग आ सकती
बिना आयु समाप्त किये, यमपुरी नहीं जा सकती
मुझे शर्म ना कोई हया है ,मैं अनुगमन करती हूँ
गैर किसी भी नर का नहीं ,अपने पति को नमन करती हूँ
स्त्रियों की गति उसके पति हैं, आप जिसे लेकर चले
पति बिना जीवन कैसा , अरमानों की चिता जले
धरती पर सबका स्थान, पर पतिहीन नारी का मान
नहीं कभी हुआ यहाँ पर , नहीं होता उसका कल्याण
हे पुत्री तुम कुछ वर मांगो, लेकिन मेरे संग ना आओ
यही प्रकृति का नियम बना है, इसको समझो ना घबराओ
सावित्री ने राज्य को माँगा, सास-ससुर के भाग्य को माँगा
जो खुशियाँ रूठ चुकी है ,उस बिखरे सौभाग्य को माँगा
कुछ दूर आगे जाने पर, यमराज कुछ हर्षित हुए
लेकिन वो तो लौटी नहीं ,वे कुछ आश्चर्य चकित हुए
हे भामिनी क्यों जिद करती हो ,क्यों अनहोनी तुम करती हो
आजतक जो विधि ने चाहा ,उसमें अड़चन क्यों बनती हो
दूसरा कोई भी वर मांगों ,लेकिन अपने जिद को छोड़ो
ये जग कितना सुन्दर है ,सुन्दरता से मुंह ना मोड़ो
हे श्रेष्ठ पुरुष क्या कहूँ आपको ,मेरे लिए जग ही सुना है
मेरे पति तो संग आपके, जा रहे अब क्या जीना है
मेरे पिता को सौ पुत्र हो, मैं भी पुत्रवती होऊं
ये वर मुझको दे दे आप ,आप की भक्ति को मैं पाऊँ
ऐसा ही हो हे पुत्री ,पर तुम अब वापस जाओ
बिलम्ब करो ना यूँ मुझको, तुम अपने घर को जाओ
हे श्रेष्ठ पिता पुत्री माना ,वर देकर जो मान दिया
बिना पति के पुत्र हो कैसे, ये कैसा सम्मान दिया
हे पुत्री तुम जीत गयी , तेरी भक्ति से खुश हुआ
सौभाग्यवती बन सदा रहो ,तुमसे अमर ये जग हुआ
सावित्री अपने पति संग, जब अपने घर वापस लौटी
सास-ससुर को नेत्र मिला, राज्य को पाके निहाल उठी
सौ भाई की बहन बनी वो ,सौ पुत्रों की माता
अमर हो गयी कई युगों तक, सावित्री की गाथा
अपनी धर्य विवेक के बल पर, यमराज से भी लड़ पड़ी
अपने पति को वापस पाकर, जग में वो अमर हुई
भारतवर्ष की ये सब नारी ,भारत की शान बढाती है
हमें गर्व है खुद पर क्योंकि, हम भी देश के वासी हैं
----भारती दास
Wednesday, June 5, 2013
वादा निभाना................संजय जोशी 'सजग "
विश्व पर्यावरण दिवस ......
अच्छी मानसून ,
अच्छी हरियाली ...
और शानदार पर्यावरण की ..
हार्दिक शुभ कामनाओ सहित
....ऋता
वादा निभाना
प्रदूषण बचाना
मस्ती में जीना
........
पेड़ व पोधे
आक्सीजन वाहक
जीवन दाता
.........
पर्यावरण
पोलीथिन दुश्मन
समझे कौन
.........
पर्यावरण
जीवन आवरण
करो सुरक्षा
........
फटी छतरी
ग्लोबल वार्मिग
है प्रदूषण
.......
पर्यावरण
दुश्मनी न करो
बचाओ दोस्ती
......
है हरियाली
जीवन खुशहाल
सब निहाल
== संजय जोशी 'सजग "
Tuesday, June 4, 2013
मिलेगी बेवफ़ा से पर ज़फ़ा अक्सर............सतपाल ख्याल
वो आ जाए ख़ुदा से की दुआ अक्सर
वो आया तो परेशाँ भी रहा अक्सर
ये तनहाई ,ये मायूसी , ये बेचैनी
चलेगा कब तलक ये सिलसिला अक्सर
न इसका रास्ता कोई ,न मंजिल है
‘मोहब्बत है यही’ सबने कहा अक्सर
चलो इतना ही काफ़ी है कि वो हमसे
मिला कुछ पल मगर मिलता रहा अक्सर
वो ख़ामोशी वही दुख है वही मैं हूँ
तेरे बारे में ही सोचा किया अक्सर
ये मुमकिन है कि पत्थर में ख़ुदा मिल जाए
मिलेगी बेवफ़ा से पर ज़फ़ा अक्सर
--सतपाल ख्याल
Sunday, June 2, 2013
उठा कर क्यों न फेंकें सारी चीज़ें................ जॉन एलिया.
नया एक रिश्ता पैदा क्यों करें हम
बिछड़ना है तो झगडा क्यों करें हम
ख़ामोशी से अदा हो रस्मे-दूरी
कोई हंगामा बरपा क्यों करें हम
ये काफी है कि हम दुश्मन नहीं हैं
वफादारी का दावा क्यों करें हम
वफ़ा इखलास कुर्बानी मोहब्बत
अब इन लफ़्ज़ों का पीछा क्यों करें हम
सुना दें इस्मते-मरियम का किस्सा
पर अब इस बाब को वा क्यों करें हम
ज़ुलेखा-ए-अजीजाँ बात ये है
भला घाटे का सौदा क्यों करें हम
हमारी ही तमन्ना क्यों करो तुम
तुम्हारी ही तमन्ना क्यों करें हम
किया था अहद जब लम्हों में हमने
तो सारी उम्र इफा क्यों करें हम
उठा कर क्यों न फेंकें सारी चीज़ें
फकत कमरों में टहला क्यों करें हम
नहीं दुनिया को जब परवाह हमारी
तो दुनिया की परवाह क्यों करें हम
बरहना हैं सरे बाज़ार तो क्या
भला अंधों से परा क्यों करें हम
क्यूँ ना चबा ले खुद ही अपना ढांचा
तुम्हे रातिब मुहय्या क्यों करे हम
हैं बाशिंदे इसी बस्ती के हम भी
सो खुद पर भी भरोसा क्यों करें हम
पड़ी रहने दो इंसानों की लाशें
ज़मीं का बोझ हल्का क्यों करें हम
ये बस्ती है मुसलामानों की बस्ती
यहाँ कारे-मसीहा क्यों करें हम
--- जॉन एलिया
इखलास = : purification, purity, sincerity, candour, selflessnessअहद = Promise, commitmentईफा = Fulfillment / Observanceबाब = खिड़की, windowवा = खुला, openरातिब = राशन , ration, portion of meals.बरहना = जिसके शरीर पर कोई वस्त्र न हो। कार = work , deed, function, duty
तुम्हारे अंगूरी नरम हाथों के लिए...........पाब्लो नेरूदा
ताकि तुम सुन सको मुझे
मेरे शब्दों को
कभी-कभी वे होते विरल
समुद्री चिड़ियों के पदचिह्नों-से समुद्र तटों पर
यह गलहार मदमस्त घण्टी,
छैलकड़ी तुम्हारे अंगूरी नरम हाथों के लिए
और मैं देखता अपने शब्दों को एक लम्बी दूरी से
मुझसे बहुत अधिक वे तुम्हारे हैं,
लता की तरह मेरी पुरानी पीड़ाओं पर वे करते आरोहण
जो चढ़ती सीलन-भरी दीवारों पर इसी तरीक़े से,
इस निष्ठुर क्रीड़ा के लिए दोषी हो तुम,
वे निकल भागते मेरे उदास-अंधेरे बिछौने से,
सब कुछ भर देती हो, तुम भर देती हो सब कुछ
तुमसे पहले आबाद कर देते हैं मेरे शब्द
उस एकान्त को, जहां तुम जगह लेती हो,
और तुम्हारी बनिस्बत मेरी उदासी में अधिक काम के हैं वे!
अब मैं उन्हें कहना चाहता हूं जो चाहता रहा हूं मैं तुम्हें कहना
सुनने के लिए तैयार करते हुए कि; मैं चाहता हूं तुम सुनो मुझे
व्यथा की हवाएं चुपचाप खींच ले जाती हैं हमेशा की तरह
कभी-कभी सपनों के तूफान निश्शब्द खटखटाते हैं उन्हें
तुम ध्यान देती हो दूसरी आवाजों में मेरी दुखभरी अभिव्यक्ति के बीच
जैसे पुराने सुने शोकगीत, पुरानी प्रार्थनाओं के स्वभाव, कुल-गोत्र
प्यार करो मुझे मेरी साथी, यूं त्यागो नहीं,
अनुसरण करो मेरा, मेरी मित्र, दुख की इस तेज लहर में।
पर मेरे शब्द तो तुम्हारे प्रेम से रंगे हैं
घेर लिया है सब कुछ तुमने, तुमने घेर लिया सभी कुछ
रच रहा हूं उन्हें एक अन्तहीन माला में
तुम्हारे गोरे अंगूरों-से चिकने हाथों के लिए।
मेरे शब्दों को
कभी-कभी वे होते विरल
समुद्री चिड़ियों के पदचिह्नों-से समुद्र तटों पर
यह गलहार मदमस्त घण्टी,
छैलकड़ी तुम्हारे अंगूरी नरम हाथों के लिए
और मैं देखता अपने शब्दों को एक लम्बी दूरी से
मुझसे बहुत अधिक वे तुम्हारे हैं,
लता की तरह मेरी पुरानी पीड़ाओं पर वे करते आरोहण
जो चढ़ती सीलन-भरी दीवारों पर इसी तरीक़े से,
इस निष्ठुर क्रीड़ा के लिए दोषी हो तुम,
वे निकल भागते मेरे उदास-अंधेरे बिछौने से,
सब कुछ भर देती हो, तुम भर देती हो सब कुछ
तुमसे पहले आबाद कर देते हैं मेरे शब्द
उस एकान्त को, जहां तुम जगह लेती हो,
और तुम्हारी बनिस्बत मेरी उदासी में अधिक काम के हैं वे!
अब मैं उन्हें कहना चाहता हूं जो चाहता रहा हूं मैं तुम्हें कहना
सुनने के लिए तैयार करते हुए कि; मैं चाहता हूं तुम सुनो मुझे
व्यथा की हवाएं चुपचाप खींच ले जाती हैं हमेशा की तरह
कभी-कभी सपनों के तूफान निश्शब्द खटखटाते हैं उन्हें
तुम ध्यान देती हो दूसरी आवाजों में मेरी दुखभरी अभिव्यक्ति के बीच
जैसे पुराने सुने शोकगीत, पुरानी प्रार्थनाओं के स्वभाव, कुल-गोत्र
प्यार करो मुझे मेरी साथी, यूं त्यागो नहीं,
अनुसरण करो मेरा, मेरी मित्र, दुख की इस तेज लहर में।
पर मेरे शब्द तो तुम्हारे प्रेम से रंगे हैं
घेर लिया है सब कुछ तुमने, तुमने घेर लिया सभी कुछ
रच रहा हूं उन्हें एक अन्तहीन माला में
तुम्हारे गोरे अंगूरों-से चिकने हाथों के लिए।
----पाब्लो नेरूदा
वेब दुनिया काव्य संसार से
वेब दुनिया काव्य संसार से
फिर मंदिर को कोई मीरा दीवानी दे मौला..............निदा फ़ाज़ली
दो और दो का जोड़ हंमेशा चार कहां होता है
सोच समझवालों को थोड़ी नादानी दे मौला
फिर रोशन कर ज़हर का प्याला चमका नई सलीबें
झूठों की दुनिया में सच को ताबानी दे मौला
फिर मूरत से बाहर आकर चारो ओर बिखर जा
फिर मंदिर को कोई मीरा दीवानी दे मौला
तेरे होते कोई किसी की जान का दुश्मन क्यों हैं
जीने वालों को मरने की आसानी दे मौला
......निदा फ़ाज़ली
श्री अशोक खाचर द्वारा प्रस्तुत
सोच समझवालों को थोड़ी नादानी दे मौला
फिर रोशन कर ज़हर का प्याला चमका नई सलीबें
झूठों की दुनिया में सच को ताबानी दे मौला
फिर मूरत से बाहर आकर चारो ओर बिखर जा
फिर मंदिर को कोई मीरा दीवानी दे मौला
तेरे होते कोई किसी की जान का दुश्मन क्यों हैं
जीने वालों को मरने की आसानी दे मौला
श्री अशोक खाचर द्वारा प्रस्तुत
Saturday, June 1, 2013
मेंहदी बगैर काम कोणी चाल्लै..............विशाल दास...(याहू ग्रुप )
शादी ब्याव रो मौसम है
मेंहदी बगैर काम कोणी चाल्लै
मेंहदी बगैर काम कोणी चाल्लै
Smiles & Regards,
V I S H
A L D A S
Mobile: +91 9308388080 | mail to:vishal.das@inbox.com