Thursday, June 20, 2013

वो शख़्स धीरे-धीरे सांसों में आ बसा है.......रोहित जैन






वो शख़्स धीरे-धीरे सांसों में आ बसा है
बन के लकीर हर इक, हाथों में आ बसा है

वो मिले थे इत्तेफ़ाक़न हम हंसे थे इत्तेफ़ाक़न
अब यूं हुआ के सावन आंखों में आ बसा है

काफ़ी थे चंद लम्हे तेरे साथ के सितमगर
ये क्या किया है तूने, ख़्वाबों में आ बसा है

अब तो वो ही है साहिल, तूफ़ान भी वो ही है
कुछ इस तरह से दिल की मौजों में आ बसा है

उम्मीद-ओ-हौंसला भी रिश्ता भी है ख़ला भी
वो ज़िंदगी के सारे नामों में आ बसा है

कुछ रफ़्ता-रफ़्ता आता, मुझको पता तो चलता
वो शख़्स एकदम ही आहों में आ बसा है

उसकी पहुंच गज़ब है, वो देखो किस तरह से
दिन में भी आ बसा है रातों में आ बसा है

क्या बोलता हूं जाने, के पूछती है दुनिया
वो कौन है जो तेरी बातों में आ बसा है। 

- रोहित जैन

3 comments:

  1. बहुत सुंदर है, बधाई

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  2. वो मिले थे इत्तेफ़ाक़न हम हंसे थे इत्तेफ़ाक़न
    अब यूं हुआ के सावन आंखों में आ बसा है..सुन्दर भाव लिए सुन्दर रचना !
    latest post परिणय की ४0 वीं वर्षगाँठ !

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