सावित्री- सत्यवान की, है ये कथा पुरानी
सदियों से बस सुनती आयी ,अनमिट प्रेम कहानी
मद्र-देश के राजा अश्वपति थे, क्षमाशील संतान रहित थे
प्रभास-क्षेत्र में भ्रमण को आये ,ब्रम्हा-प्रिया से वर को पाए
कन्या रूप में उत्पन्न हुई , अश्वपति की पुत्री बनी
कमल सामान विशाल नेत्र थे ,अग्नि सामान प्रचंडतेज थे
राजकुमारी अति लाडली , सावित्री था उसका नाम
सरस्वती सा रूप था मोहक , पाई थी बुद्धि तमाम
थक-हार के राजा बैठे ,योग्य वर ना मिला उन्हें
किससे होगी शादी पुत्री की, इसी सोच में डूबे रहे
हे पुत्री मै हूँ शर्मिंदा ,राजा ने कर जोड़ लिए
अपना वर तुम खुद ही ढूंढो,तुम पे सब कुछ छोड़ दिए
सावित्री ने कहा पिताश्री , आप सदा निश्चिन्त रहें
मै अपना वर ढूंढ पाऊँगी , आप सदा आश्वस्त रहें
कई दिनों से यात्रा करके, सावित्री थक के हारी
क्या कहूँगी मै पिता से, सोच में डूबी थी सुकुमारी
एक कुमार जंगल में रहता, दीखता बहुत ही प्यारा है
लम्बी भुजाएं ऊँचा मस्तक, गौरवर्ण भी न्यारा है
द्युमत्सेन एक राजा थे, पर शत्रु से हारे थे
सत्यवान जो पुत्र थे उनके ,माता-पिता के सहारे थे
सत्य का संभाषण करना, उसका परम धर्मं था
माता-पिता का सेवा करना ,सत्यवान का कर्म था
मंत्र-मुग्ध हो गयी सावित्री ,मन ही मन दिल हार गयी
मन चाहा वर मुझे मिला , यह सोचकर मनुहार हुयी
जिस कार्य से वन को आयी, वो हुआ पूर्ण सब काम
अपना वर मैं ढ़ूंढ़ ही लिया , जो होगा मेरे समान
नारदजी ने बीच में टोका ,सत्यवान अल्पायु है
एक साल ही जीवित रहेगा, एक दोष क्षीणायु है
सावित्री बोली फिर सबसे, एक बार देते है दान
एक बार ही शादी होती ,एकबार करते कन्यादान
पहले का युग सतयुग था, वचन की महता भारी थी
जीवन से बढ़कर वचन थे, जिस पे प्राण भी वारी थी
राजकुमारी की शादी , अतिशीघ्र ही हो गयी
सावित्री सत्यवान को पाकर, अत्यधिक ही प्रसन्न हुयी
सास-ससुर जो नेत्र-हीन थे ,सेवा से संतुष्ट हुए
आशीष देकर सावित्री को, वे दोनों आश्वस्त हुए
हंसी- ख़ुशी व्यतीत हुए दिन ,बरस करीब आने लगा
विषाद बनकर मुनि की बातें , मन को यूँ घबराने लगा
सत्यवान जंगल में आया , सावित्री चुपचाप चली
अपने पति का अनुगमन कर , मन में कुछ तो सोच रही
हुई अचानक सिर में पीड़ा, सत्यवान कराह उठे
हे सुंदरी क्षणभर सोऊंगा , गोद में तेरी “आह” उठे
पीत-वस्त्र - किरीट-धारी, सूर्य समान उदित हुए
एक छाया था कृष्णवर्ण, उसके सम्मुख प्रकट हुए
सावित्री डरी नहीं , बस केवल डटी रही
कर प्रणाम नर श्रेष्ठ को, मधुर वचन कहने लगी
कौन हैं आप कहाँ से आये, यहाँ किसलिए आये हैं
मैं समर्थ हूँ अग्नि समान, मुझको व्यर्थ डराये हैं
यमराज हूँ मैं प्राण को लेता, उचित दंड भी मैं तो देता
जिसकी होती आयु पूरी, उसको लेने मैं खुद आता
यमराज लेकर के प्राण , चलने लगे वो अपने धाम
सावित्री भी साथ चली , राहों से होकर अंजान
यमराज ने कहा प्यार से, तुम नहीं संग आ सकती
बिना आयु समाप्त किये, यमपुरी नहीं जा सकती
मुझे शर्म ना कोई हया है ,मैं अनुगमन करती हूँ
गैर किसी भी नर का नहीं ,अपने पति को नमन करती हूँ
स्त्रियों की गति उसके पति हैं, आप जिसे लेकर चले
पति बिना जीवन कैसा , अरमानों की चिता जले
धरती पर सबका स्थान, पर पतिहीन नारी का मान
नहीं कभी हुआ यहाँ पर , नहीं होता उसका कल्याण
हे पुत्री तुम कुछ वर मांगो, लेकिन मेरे संग ना आओ
यही प्रकृति का नियम बना है, इसको समझो ना घबराओ
सावित्री ने राज्य को माँगा, सास-ससुर के भाग्य को माँगा
जो खुशियाँ रूठ चुकी है ,उस बिखरे सौभाग्य को माँगा
कुछ दूर आगे जाने पर, यमराज कुछ हर्षित हुए
लेकिन वो तो लौटी नहीं ,वे कुछ आश्चर्य चकित हुए
हे भामिनी क्यों जिद करती हो ,क्यों अनहोनी तुम करती हो
आजतक जो विधि ने चाहा ,उसमें अड़चन क्यों बनती हो
दूसरा कोई भी वर मांगों ,लेकिन अपने जिद को छोड़ो
ये जग कितना सुन्दर है ,सुन्दरता से मुंह ना मोड़ो
हे श्रेष्ठ पुरुष क्या कहूँ आपको ,मेरे लिए जग ही सुना है
मेरे पति तो संग आपके, जा रहे अब क्या जीना है
मेरे पिता को सौ पुत्र हो, मैं भी पुत्रवती होऊं
ये वर मुझको दे दे आप ,आप की भक्ति को मैं पाऊँ
ऐसा ही हो हे पुत्री ,पर तुम अब वापस जाओ
बिलम्ब करो ना यूँ मुझको, तुम अपने घर को जाओ
हे श्रेष्ठ पिता पुत्री माना ,वर देकर जो मान दिया
बिना पति के पुत्र हो कैसे, ये कैसा सम्मान दिया
हे पुत्री तुम जीत गयी , तेरी भक्ति से खुश हुआ
सौभाग्यवती बन सदा रहो ,तुमसे अमर ये जग हुआ
सावित्री अपने पति संग, जब अपने घर वापस लौटी
सास-ससुर को नेत्र मिला, राज्य को पाके निहाल उठी
सौ भाई की बहन बनी वो ,सौ पुत्रों की माता
अमर हो गयी कई युगों तक, सावित्री की गाथा
अपनी धर्य विवेक के बल पर, यमराज से भी लड़ पड़ी
अपने पति को वापस पाकर, जग में वो अमर हुई
भारतवर्ष की ये सब नारी ,भारत की शान बढाती है
हमें गर्व है खुद पर क्योंकि, हम भी देश के वासी हैं
----भारती दास
सदियों से बस सुनती आयी ,अनमिट प्रेम कहानी
मद्र-देश के राजा अश्वपति थे, क्षमाशील संतान रहित थे
प्रभास-क्षेत्र में भ्रमण को आये ,ब्रम्हा-प्रिया से वर को पाए
कन्या रूप में उत्पन्न हुई , अश्वपति की पुत्री बनी
कमल सामान विशाल नेत्र थे ,अग्नि सामान प्रचंडतेज थे
राजकुमारी अति लाडली , सावित्री था उसका नाम
सरस्वती सा रूप था मोहक , पाई थी बुद्धि तमाम
थक-हार के राजा बैठे ,योग्य वर ना मिला उन्हें
किससे होगी शादी पुत्री की, इसी सोच में डूबे रहे
हे पुत्री मै हूँ शर्मिंदा ,राजा ने कर जोड़ लिए
अपना वर तुम खुद ही ढूंढो,तुम पे सब कुछ छोड़ दिए
सावित्री ने कहा पिताश्री , आप सदा निश्चिन्त रहें
मै अपना वर ढूंढ पाऊँगी , आप सदा आश्वस्त रहें
कई दिनों से यात्रा करके, सावित्री थक के हारी
क्या कहूँगी मै पिता से, सोच में डूबी थी सुकुमारी
एक कुमार जंगल में रहता, दीखता बहुत ही प्यारा है
लम्बी भुजाएं ऊँचा मस्तक, गौरवर्ण भी न्यारा है
द्युमत्सेन एक राजा थे, पर शत्रु से हारे थे
सत्यवान जो पुत्र थे उनके ,माता-पिता के सहारे थे
सत्य का संभाषण करना, उसका परम धर्मं था
माता-पिता का सेवा करना ,सत्यवान का कर्म था
मंत्र-मुग्ध हो गयी सावित्री ,मन ही मन दिल हार गयी
मन चाहा वर मुझे मिला , यह सोचकर मनुहार हुयी
जिस कार्य से वन को आयी, वो हुआ पूर्ण सब काम
अपना वर मैं ढ़ूंढ़ ही लिया , जो होगा मेरे समान
नारदजी ने बीच में टोका ,सत्यवान अल्पायु है
एक साल ही जीवित रहेगा, एक दोष क्षीणायु है
सावित्री बोली फिर सबसे, एक बार देते है दान
एक बार ही शादी होती ,एकबार करते कन्यादान
पहले का युग सतयुग था, वचन की महता भारी थी
जीवन से बढ़कर वचन थे, जिस पे प्राण भी वारी थी
राजकुमारी की शादी , अतिशीघ्र ही हो गयी
सावित्री सत्यवान को पाकर, अत्यधिक ही प्रसन्न हुयी
सास-ससुर जो नेत्र-हीन थे ,सेवा से संतुष्ट हुए
आशीष देकर सावित्री को, वे दोनों आश्वस्त हुए
हंसी- ख़ुशी व्यतीत हुए दिन ,बरस करीब आने लगा
विषाद बनकर मुनि की बातें , मन को यूँ घबराने लगा
सत्यवान जंगल में आया , सावित्री चुपचाप चली
अपने पति का अनुगमन कर , मन में कुछ तो सोच रही
हुई अचानक सिर में पीड़ा, सत्यवान कराह उठे
हे सुंदरी क्षणभर सोऊंगा , गोद में तेरी “आह” उठे
पीत-वस्त्र - किरीट-धारी, सूर्य समान उदित हुए
एक छाया था कृष्णवर्ण, उसके सम्मुख प्रकट हुए
सावित्री डरी नहीं , बस केवल डटी रही
कर प्रणाम नर श्रेष्ठ को, मधुर वचन कहने लगी
कौन हैं आप कहाँ से आये, यहाँ किसलिए आये हैं
मैं समर्थ हूँ अग्नि समान, मुझको व्यर्थ डराये हैं
यमराज हूँ मैं प्राण को लेता, उचित दंड भी मैं तो देता
जिसकी होती आयु पूरी, उसको लेने मैं खुद आता
यमराज लेकर के प्राण , चलने लगे वो अपने धाम
सावित्री भी साथ चली , राहों से होकर अंजान
यमराज ने कहा प्यार से, तुम नहीं संग आ सकती
बिना आयु समाप्त किये, यमपुरी नहीं जा सकती
मुझे शर्म ना कोई हया है ,मैं अनुगमन करती हूँ
गैर किसी भी नर का नहीं ,अपने पति को नमन करती हूँ
स्त्रियों की गति उसके पति हैं, आप जिसे लेकर चले
पति बिना जीवन कैसा , अरमानों की चिता जले
धरती पर सबका स्थान, पर पतिहीन नारी का मान
नहीं कभी हुआ यहाँ पर , नहीं होता उसका कल्याण
हे पुत्री तुम कुछ वर मांगो, लेकिन मेरे संग ना आओ
यही प्रकृति का नियम बना है, इसको समझो ना घबराओ
सावित्री ने राज्य को माँगा, सास-ससुर के भाग्य को माँगा
जो खुशियाँ रूठ चुकी है ,उस बिखरे सौभाग्य को माँगा
कुछ दूर आगे जाने पर, यमराज कुछ हर्षित हुए
लेकिन वो तो लौटी नहीं ,वे कुछ आश्चर्य चकित हुए
हे भामिनी क्यों जिद करती हो ,क्यों अनहोनी तुम करती हो
आजतक जो विधि ने चाहा ,उसमें अड़चन क्यों बनती हो
दूसरा कोई भी वर मांगों ,लेकिन अपने जिद को छोड़ो
ये जग कितना सुन्दर है ,सुन्दरता से मुंह ना मोड़ो
हे श्रेष्ठ पुरुष क्या कहूँ आपको ,मेरे लिए जग ही सुना है
मेरे पति तो संग आपके, जा रहे अब क्या जीना है
मेरे पिता को सौ पुत्र हो, मैं भी पुत्रवती होऊं
ये वर मुझको दे दे आप ,आप की भक्ति को मैं पाऊँ
ऐसा ही हो हे पुत्री ,पर तुम अब वापस जाओ
बिलम्ब करो ना यूँ मुझको, तुम अपने घर को जाओ
हे श्रेष्ठ पिता पुत्री माना ,वर देकर जो मान दिया
बिना पति के पुत्र हो कैसे, ये कैसा सम्मान दिया
हे पुत्री तुम जीत गयी , तेरी भक्ति से खुश हुआ
सौभाग्यवती बन सदा रहो ,तुमसे अमर ये जग हुआ
सावित्री अपने पति संग, जब अपने घर वापस लौटी
सास-ससुर को नेत्र मिला, राज्य को पाके निहाल उठी
सौ भाई की बहन बनी वो ,सौ पुत्रों की माता
अमर हो गयी कई युगों तक, सावित्री की गाथा
अपनी धर्य विवेक के बल पर, यमराज से भी लड़ पड़ी
अपने पति को वापस पाकर, जग में वो अमर हुई
भारतवर्ष की ये सब नारी ,भारत की शान बढाती है
हमें गर्व है खुद पर क्योंकि, हम भी देश के वासी हैं
----भारती दास
खूबशूरत अहसास की बेहतरीन प्रस्तुति
ReplyDeleteप्यरा की सौगात ले स्नेह की सरिता सरीखे रंग दिया अपनत्व को सादर
धन्यवाद, आपने इसे सराहा.
Deleteसादर
भारती दास
सुन्दर रचना
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteसादर
भारती दास
वट सावित्री कथा कविता में बहुत खूब सुंदर प्रस्तुति !!
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteभारतीय संस्कृति की अमर कथा को काब्य के रूप में एक छोटी कोशिश
सादर
भारती दास
बहुत खूब
ReplyDeleteवट सावित्री कथा कविता में बहुत सुंदर प्रस्तुति
God Bless U....
धन्यवाद, आपने इसे सराहा.
Deleteसादर
भारती दास
सुन्दर रचना, बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ..बहुत खूब सुंदर
ReplyDeleteधन्यवाद, आपने इसे सराहा.
Deleteसादर
भारती दास
अच्छी जानकारी
ReplyDeleteसार्थक सामयिक लेख
धन्यवाद
Deleteभारतीय संस्कृति की अमर कथा को काब्य के रूप में एक छोटी कोशिश
सादर
भारती दास
धन्यवाद, आपने इसे सराहा व सम्मान दिया
ReplyDeleteसादर
भारती दास
बहुत ही बढिया
ReplyDeleteआपकी यह रचना अमर कहानी को जीवंत करती है।
ReplyDeleteक्या मैं आपकी इस रचना को YouTube पर रेकॉर्ड कर सकता हूँ अगर आपकी अनुमति हो तो।
सदर
PEACE OF POETRY
https://youtube.com/channel/UCsNFm76aJy5ucyEWPYSB0GA
ReplyDeletePEACE OF POETRY पर आप जाकर देख सकते हैं हमारी कोशिश
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDelete