Wednesday, August 31, 2016

मैं जानता हूं कि.....ज़हीर कुरेशी
















मैं जानता हूं कि
फिर उम्र भर नही लौटी
नदी पहाड़ से बिछुड़ी
तो घर नहीं लौटी।

लहर ने वादा किया था कि
तट को छुएगी ज़रूर,
है तट प्रतीक्षा में,
लहर नहीं लौटी।

खिले हजारों की संख्या में
फूल सूर्यामुखी,
फिर उस तरह की
कभी दोपहर नहीं लौटी।

इतना तो तय था कि
अस्मत लुटा के लौटेगी,
सुबह की भूली
अगर रात भर नहीं लौटी।

वो कर रही है परिस्कार
भूल अपनी का,
उधर से चल पड़ी थी,
इधर नहीं लौटी।

विचारने के अलावा भी
क्या किया जाए,
हमारी आँखो तलक नींद
अगर नहीं लौटी।

मनुष्य-लोक को दौड़ा
तो स्वर्ग-लोक गए,
वहां पहुंचने की
अब तक खबर नहीं लौटी।


-ज़हीर कुरेशी

Tuesday, August 30, 2016

कंगाल...विभा रश्मि

 महानगर के व्यस्त चौराहे के रेड सिग्नल पर ट्रैफ़िक के रुकते ही छुट-पुट सामान बेचने वालों और भिख़ारियों की सक्रियता देखने लायक़ होती। वे कारों के निकट आकर बंद खिड़की के काँच पर हथेली से ठकठकाते 
ताकि अपना सामान बेच सकें।
 वे बच्चों के लिये रंगीन स्लेट, खिलौने, मोबाइल चार्जर, डस्टर आदि बेचने की चेष्टा करते। 
 कुछ भीख माँगती औरतें-बच्चे परेशान करते।
कार की अधखुली विंडो से लोग सामान का मोल-भाव करते। कहीं सौदा पट जाता, कहीं नहीं। 
 सारा दिन मुंबई महानगर के व्यस्त चौराहों व जंक्शनों पर यही चलता ।
"वो देख! एक सिल्वर कलर की कार रुकी।"
 फूल बेचने वाली लड़की उस तरफ़ लपकी, पीछे की सीट पे एक महिला पसरी हुई थी। 
 उसने आधी विंडो खोली और लड़की से लाल गुलाब के गुच्छे के लिये मोल-तोल शुरू कर दिया।
"कितने का देगी?"
"साठ का है...ताजे़ लाल गुलाब...ले ले मेम साब," वो विनती कर रही थी।
"तीस में दे जा।"
"ना...ना, खरीद नहीं।"
"बोहनी का टेम है, …अच्छा चालीस दे दे।"
लड़की ने इंकार किया।
सिग्नल की लाल लाइट पीली हो गयी थी। लड़की ने खिड़की के भीतर अपना गुलदस्ता महिला को पकड़ा दिया।
"जल्दी पैइसा बाहर फेंक दे सेठानी ....आंटी।"
महिला ने मोटे पर्स से पाँच सौ का नोट निकाला और हवा में लहरा दिया।
"छुट्टे हैं इसके?"

"न..नहीं... पण.. तू फूल फेंक, ...नहीं देगी मैं... चोरनी," लड़की बिफ़र गई।
कार का काला विंडो ग्लास धीरे-धीरे बंद हो गया। कार ने तेज़ी पकड़ ली। ट्रैफ़िक फिर चलने लगा था।
कार में बैठी महिला ने ताज़े सुर्ख़ गुलाब के फूलों को सूँघा... फ्री में हथियाए गुलदस्ते को पा वो फूली नहीं समाई।
ड्राइवर ने अपने आइने में देखा लड़की बिसूरती हुई पीछे भाग रही थी। 
उसने गाड़ी धीमे करते हुए साइड में लगा ली। महिला चिल्लाई, "क्या कर रहे हो!"

उसने अपनी विंडो खोली और लड़की को आने का इशारा किया। लड़की पास आई तो उसने अपनी जेब से चालीस रुपए निकालकर उसके हाथ में थमा दिए।


-विभा रश्मि
vibharashmi31@gmail.com

Saturday, August 27, 2016

इश्क़ की सौग़ात बची रह गयी है...ज़िया फ़ारूक़ी



मेरी आँखों में जो थोड़ी सी नमी रह गयी है
बस यही इश्क़ की सौग़ात बची रह गयी है

वक़्त के साथ ही गुल हो गए वहशत के चराग़
एक स्याही है जो ताक़ों पे अभी रह गयी है

और कुछ देर ठहर ऐ मेरी बीनाई कि मैं
देख लूँ रूह में जो बखिया-गरी रह गयी है

आईनो तुम ही कहो क्या है मेरे होंटों पर
लोग कहते हैं कि फीकी से हंसी रह गयी है

बोझ सूरज का तो मैं कब का उतार आया मगर
धूप जो सर पे धरी थी, सो धरी रह गयी है

यूं तो इस घर के दर-ओ-बाम सभी टूट गए
हाँ मगर बीच की दीवार अभी रह गयी है
-ज़िया फ़ारूक़ी 
बीनाई = नज़र

Thursday, August 25, 2016

कविता की मौत.......... धर्मवीर भारती

धर्मवीर भारती ने दूसरे तार सप्तक में कविता की मौत शीर्षक से एक कविता लिखी थी जो आज के भारत के उदय होते कवियों के प्रकाश में जबरन भारत का भूषण बनाने की कोशिशों के आलोक में पढी जानी चाहिए-

कविता की मौत 


25-12-1926 - 4-9-1997




लादकर ये आज किसका शव चले?
और इस छतनार बरगद के तले,
किस अभागन का जनाजा है रुका
बैठ इसके पांयते, गर्दन झुका,
कौन कहता है कि कविता मर गयी?
मर गयी कविता,
नहीं तुमने सुना?
हाँ, वही कविता
कि जिसकी आग से
सूरज बना
धरती जमी
बरसात लहराई
और जिसकी गोद में बेहोश पुरवाई
पंखुरियों पर थमी?
वही कविता
विष्णुपद से जो निकल
और ब्रह्मा के कमंडल से उबल
बादलों की तहों को झकझोरती
चांदनी के रजत फूल बटोरती
शम्भु के कैलाश पर्वत को हिला
उतर आई आदमी की जमीं पर,
चल पड़ी फिर मुस्कुराती
शस्यश्यामलफूल, फल, फसल खिलाती,
स्वर्ग से पाताल तक
जो एक धारा बन बही
पर न आखिर एक दिन वह भी रही!
मर गई कविता वही
एक तुलसी-पत्र 'औ'
दो बूंद गंगाजल बिना,
मर गई कविता, नहीं तुमने सुना?
भूख ने उसकी जवानी तोड़ दी,
उस अभागिन की अछूती मांग का सिंदूर
मर गया बनकर तपेदिक का मरीज
'औ' सितारों से कहीं मासूम संतानें,
मांगने को भीख हैं मजबूर,
या पटरियों के किनारे से उठा
बेचते है,
अधजले
कोयले.
(याद आती है मुझे
भागवत की वह बड़ी मशहूर बात
जबकि ब्रज की एक गोपी
बेचने को दही निकली,
औ' कन्हैया की रसीली याद में
बिसर कर सुध-बुध
बन गई थी खुद दही.
और ये मासूम बच्चे भी,
बेचने जो कोयले निकले
बन गए खुद कोयले
श्याम की माया)
और अब ये कोयले भी हैं अनाथ
क्योंकि उनका भी सहारा चल बसा!
भूख ने उसकी जवानी तोड़ दी!
यूँ बड़ी ही नेक थी कविता
मगर धनहीन थी, कमजोर थी
और बेचारी गरीबिन मर गई!
मर गई कविता?
जवानी मर गई?
मर गया सूरज सितारे मर गए,
मर गए, सौन्दर्य सारे मर गए?
सृष्टि के प्रारंभ से चलती हुई 
प्यार की हर सांस पर पलती हुई
आदमीयत की कहानी मर गयी?
झूठ है यह !
आदमी इतना नहीं कमजोर है !
पलक के जल और माथे के पसीने से
सींचता आया सदा जो स्वर्ग की भी नींव
ये परिस्थितियां बना देंगी उसे निर्जीव !
झूठ है यह !
फिर उठेगा वह
और सूरज की मिलेगी रोशनी
सितारों की जगमगाहट मिलेगी !
कफन में लिपटे हुए सौन्दर्य को
फिर किरन की नरम आहट मिलेगी !
फिर उठेगा वह,
और बिखरे हुए सारे स्वर समेट
पोंछ उनसे खून,
फिर बुनेगा नयी कविता का वितान
नए मनु के नए युग का जगमगाता गान !
भूख, खूँरेजी, गरीबी हो मगर 
आदमी के सृजन की ताक़त
इन सबों की शक्ति के ऊपर
और कविता सृजन कीआवाज़ है.
फिर उभरकर कहेगी कविता
"क्या हुआ दुनिया अगर मरघट बनी,
अभी मेरी आख़िरी आवाज़ बाक़ी है,
हो चुकी हैवानियत की इन्तेहा,
आदमीयत का अभी आगाज़ बाकी है !
लो तुम्हें मैं फिर नया विश्वास देती हूँ,
नया इतिहास देती हूँ !
कौन कहता है कि कविता मर गयी?"

यह कविता मुझे मेरे फेसबुक वाल पर मिली.. पढी और चुरा कर ले आई
आज ये कविता आप के सन्मुख है


Tuesday, August 23, 2016

आप यूं ही अपना आशीष देते रहना.........सदा










पापा आपकी यादों से
आज फ़िर मैंने
अपनी पीठ टिकाई है
पलकों पे नमी है ना
मन भावुक हो रहा है
हर बरस की तरह 
आज फ़िर ...
ये तिथि जब भी आती है
बिना कुछ कहे
मन चिंहुक कर
बाते करने लगता है आपकी 
कुछ उदासियां 
ठहरी हैं मन के पास ही
कुछ ख़्याल बैठे हैं
गुमसुम से !
.....
कितना कुछ बदला
पर ये मन आज भी 
आपके कांधे पे 
सिर टिकाये हुए है 
आप यूं हीं रहेंगे
साथ मेरे जानती हूँ
आपका चेहरा बार -बार
सामने आ रहा है
नहीं संभाल पाती जब 
तो उठाकर क़लम
शब्दों के श्रद्धासुमन 
अर्पित कर देती हूँ
जहाँ भी हों आप यूं ही
अपना आशीष देते रहना !!!
- सीमा सदा सिंघल

Sunday, August 21, 2016

झपट्टा देख सियासत में.....रमेशराज

खद्दरधरी पट्ठा, जन-जन के अब तोड़ें गट्टा
बापू के भारत में कट्टा देख सियासत में।

तेरे पास न कुटिया, तन पर मैली-फटी लँगुटिया
नेताजी का  ऊंचा अट्टा देख सियासत में।

तेरी मुस्कानों पर, रंगीं ख्वाबों-अरमानों पर
बाजों जैसा रोज झपट्टा देख सियासत में।

खुशहाली के वादे, तूने भाँपे नहीं इरादे
वोट पाने के बाद सिंगट्टा देख सियासत में।
-रमेशराज

|| लोक- शैली ‘रसिया’ पर आधारित तेवरी ||

Saturday, August 20, 2016

वो चाँद भी देखो हर दिन पूरा नही होता...विमल गांधी

अच्छे लोगों का हमारी जिंदगी मे आना हमारी किस्मत होती है।
उन्हें संभाल कर रखना हमारा हुनर॥

*****
पेंसिल का इस्तेमाल हम करते थे - 
जब हम छोटे थे और रबड़ से मिटा भी देते थे।
और अब हम पेन का इस्तेमाल करते है क्योंकि - 
बचपन की ग़लतियाँ मिट सकती थी।
लेकिन अब नही॥

*****
यह दुनिया सच्चे और झूठे लोगों से कम - 
कलाकारों से ज़्यादा भरी हुई है जो कि -
समय के हिसाब से झूठे या सच्चे - 
इंसान का रूप धारण कर लेते है॥

*****
दुनिया मे ऐसा कोई नहीं - 
जिसे जमाने मे कोई गम नही।
हर कोई खोया है अपने गम में - 
हर किसी को लगता है कि -

उसका गम किसी से कम नहीं।
देखेंगे अगर अपने से ग़रीब किसी को - 
तो पता चलेगा कि उसका गम भी कुछ कम नही॥

*****
इंसान का दुखी होने का बस एक ही मूल कारण है - 
उन चीज़ो के पीछे भागना -
जो उसके पास नहीं है।
और उन चीज़ों को अनदेखा करना - 
जो उसके पास है॥

*****
हिम्मत और समझ अगर रखनी है तो - 
जो बात दिल मे है उसे बोलने की हिम्मत रखो।
जो बात दूसरे के दिल मे है उसे - 
समझने की समझ रखो॥

*****
वक्त की हो धूप या हो तेज आँधियाँ - 
कुछ क़दमों के निशान कभी नही खाेते।
जिन्हें याद कर मुस्कुरा दें ये आँखें - 
वो लोग दूर होकर भी दूर नही हाेते॥

*****
जीवन में बहुत से लोग मिलते है - 
कुछ अपने और कुछ पराये।
लेकिन वो लोग बहुत खास होते है - 
जो बिना रिश्ते के भी -
रिश्ता निभाते है - 
कभी अपने भी रिश्ते, नहीं निभा पाते॥

*****
हर सपना खुशी का पूरा नही होता - 
कोई किसी के बिना अधूरा नही होता।
जो रोशन करता है सब रातों को - 
वो चाँद भी देखो हर दिन पूरा नही होता॥



-विमल गांधी


Friday, August 19, 2016

जिसने यह कहा..ध्रुव सत्य कहा... विमल गांधी

बचपन से बुढ़ापे तक - गरीबी से अमीरी तक।
ऐसे वक़्त के - सिलसिले मिले।

अनाथाश्रम में बच्चे - गरीबों के दिखे।
वृद्धाश्रम में बुज़ुर्ग - अमीरों के मिले।

*****
हौसले का कोई पर्दा नहीं होता।
कड़े परिश्रम का कोई विकल्प नहीं होता।

दिल मे अगर जज्बा हो कुछ कर दिखाने का।
तो जलते दिये को भी आँधियों का डर नहीं होता।

*****
जिस घर मे प्रेम होता है - 
वहाँ सफलता और धन स्वयं चल कर आते है।
जिस घर मे सफलता और धन आते है - 
वहाँ खुशी भी अपने आप आ जाती है॥

*****
कोई माल में खुश है - 
तो कोई सिर्फ दाल में खुश है।
ख़ुशनसीब है वो लोग - 
जो हर हाल में खुश है॥

*****
कुछ हासिल करने के लिये - 
जीवन मे आगे बढने के लिये।
सपने देखना बहुत जरूरी है।
जो सपने देखने की हिम्मत रखते है - 
वो पूरी दुनिया जीत सकते है॥

*****
 दुनिया का सबसे बड़ा ज़ेवर - आपकी कड़ी मेहनत है।
जिसे कोई नहीं ले सकता - जो आपके हाथ मे ही है कि -
कड़ी मेहनत करे और लक्ष्य को प्राप्त करे॥

*****

-विमल गांधी

Tuesday, August 16, 2016

जिज्ञासा न होगी तिरोभूत....महेश चंद्र द्विवेदी


देखा? रात्रि-तिमिर का भूत
कृशकाय, कंकाल,  कुरूप;  
चिता की अग्नि से उठा सा
अग्निबेताल, अघोर, अवधूत.

प्रश्न पर तुम बने थे निःशब्द,
वह समझा विछोह ही प्रारब्ध;
हुआ ऐसा विचलित, विक्षिप्त,
जीवन कर लिया व्यर्थ, विद्रूप.

अब उसे देख काँपते अप्रयास
बढ़ा देते हो कदम अनायास;
ज्यूँ तम मेँ सामने आ जाये
महिषवाहन मारक कालदूत.

उसका प्रश्न था मात्र त्रिशब्द
शाश्वत, दिग-काल असम्बद्ध;
गूंजेगा, जब तक अनुत्तरित
जिज्ञासा न होगी तिरोभूत.

-महेश चंद्र द्विवेदी
ज्ञान प्रसार संस्थान
1/137, विवेक खण्ड, गोमतीनगर, लखनऊ 

Wednesday, August 10, 2016

क्योंकि मेरा प्यार तुम्हें रास नहीं आता....लक्ष्मीनारायण गुप्त
















मैं तुमसे प्यार तो नहीं करता
लेकिन तुम्हारी मुस्कान
मुझे अच्छी लगती है।
तुम्हारी हँसी और भी
शानदार लगती है।

तुम्हारा लिबास, तुम्हारी स्टाइल
क्या बात है!
तुम्हारे चेहरे की चमक
जैसे हीरे जवाहरात हैं।

लेकिन मैं तुमसे क़तई
प्यार नहीं करता
क्योंकि मेरा प्यार तुम्हें 
रास नहीं आता
और मैं ऐसा कुछ नहीं
करना चाहता
जो तुम्हें नहीं भाता।

तुम्हारी खुशी से मुझे
चैन मिलता है
प्यार इस चैन में
ख़लल डाल सकता है
तुम्हें नाराज़ कर सकता है।
मैं यह ख़तरा
मोल नहीं ले सकता
इस लिए माफ़ करना
मैं तुमसे प्यार
नहीं कर सकता।

-लक्ष्मीनारायण गुप्त
९ अगस्त, २०१६

Monday, August 8, 2016

आओ उन्हें मीठे सपने उधार दे दें......पुष्प राज चसवाल
















आओ उन्हें 
मीठे सपने उधार दे दें, 
जो अपनी ही आँखों में 
गिर गए थे 
बहुत दिन पहले। 

आओ उन्हें 
मुक्त करायें,
जो कुंठाओं में कैद 
ग्रंथियों से घिरे, 
अपना अस्तित्व 
खोने ही वाले हैं।

आओ उन्हें 
सुबह का 
स्वप्न दें,
अदृश्य जिन्हें 
अँधेरे में, जब वे 
स्वप्निल लोक में खोए रहते 
निगलना ही चाहता है। 
    
-पुष्प राज चसवाल

Friday, August 5, 2016

और खुशबू से अपने स्वप्न महाकाती...सीमा श्रीवास्तव
















वह रात की स्याही से 
दिन का गुणगान करती 
और दिन की रोशनी चुराकर 
रात को चमकाती।
वह हर शब्द से उम्मीद निकालती, 
इंतजार में अपनी मेंहदी के रंग और चटक करती 
और खुशबू से अपने स्वप्न महाकाती।
वह अधखिली कलियों को चूमती 
और खिलने पर 
उन्हें दूर से निहारती।
एक दिन वह अपनी उम्मीद
उदास लडकियों में बाँट आई। 
उसने उनकी हाथों में 
अपने हाथों से मेंहदी लगाई।
अब खुशबू फिजाओं में बिखरेगी
और प्रेम के कत्थई रंग चर्चे में होंगे। 
वह दूर खड़ी खुशियों का आनंद ले रही है। 

- सीमा श्रीवास्तव

Thursday, August 4, 2016

नम हुई जाती है तुम्हारी पलकें...........दिनेश नायडू


फिर घटा ज़हन के आकाश में छाई हुई है
मेरे चौखट प कोई नज़्म सी आई हुई है

लौट आईं हैं गए दिन की सदायें मुझमें
भीगती कांपती इक शाम भी आई हुई है

ऐसी शामों में तुझे याद तो आता होगा
ये घडी हमने कभी साथ बिताई हुई है

ये सड़क रात के आगोश में सिमटी हुई आज
मुझसे कहती है क्यों उम्मीद लगाई हुई है

जानता हूँ मैं इस आवाज़ के नक़्शे पूरे
तेरी आहट प कई रोज़ पढ़ाई हुई है

किसलिए नम हुई जाती है तुम्हारी पलकें
ये कहानी तो तुम्हे मैंने सुनाई हुई है

दिनेश नायडू
09303985412

लोग समझे कि मर गए हैं हम.....नरेश कुमार "शाद"


डूब कर पार उतर गए हैं हम
लोग समझे कि मर गए हैं हम

ए ग़म-ए-दहर तेरा क्या होगा
ये अगर सच है कि मर गए हैं हम

ख़ैर-मकदम किया हवादिस ने
ज़िदगी में जिधर गए हैं हम

या बिगड़ कर उजड़ गए हैं लोग
या बिगड़ कर संवर गए हैं हम

मौत को मुँह दिखाएँ क्या या रब
ज़िंदगी  ही  में  मर गए  हैं  हम

हाए क्या शय है नश्शा-ए-मय भी
फ़र्श  से  अर्श पर  गए  हैं  हम

आरजूओं की आग में जल कर
और भी कुछ निखर गए हैं हम

जब भी हम को किया गया महबूस
मिस्ल-ए-निकहत बिखर गए हैं हम

शादमानी  के  रंग-महलों  में
"शाद" बा-चश्म-ए-तर गए हैं हम

-नरेश कुमार "शाद" 

Wednesday, August 3, 2016

स्‍पर्श प्रेम का......ज्योति जैन














प्रेम का प्रथम स्‍पर्श
उतना ही पावन व निर्मल
जैसे कुएं का
बकुल-
तपती धूप में प्रदान करता
शीतलता-
सौंधी महक लिए।
जब मिलता तो लगे
बहुत कम
लेकिन
बढते वक्‍त के साथ
भर जाता लबालब
परिपूर्ण हो जाता कुआं
हमेशा प्‍यास बुझाने के लिए
कभी न कम होने के लिए।
प्रेम का प्रथम स्‍पर्श
मानो कुएं का बकुल।
-ज्योति जैन

Tuesday, August 2, 2016

जियो उस प्यार में जो मैंने तुम्हें दिया है........अज्ञेय

















जियो उस प्यार में
जो मैंने तुम्हें दिया है,
उस दु:ख में नहीं जिसे
बेझिझक मैंने पिया है।

उस गान में जियो
जो मैंने तुम्हें सुनाया है,
उस आह में नहीं‍ जिसे
मैंने तुमसे छिपाया है।

उस द्वार से गुजरो
जो मैंने तुम्हारे लिए खोला है,
उस अंधकार से नहीं
जिसकी गहराई को
बार-बार मैंने तुम्हारी रक्षा की भावना से टटोला है।

वह छादन तुम्हारा घर हो
जिसे मैं असीसों से बुनता हूं, बुनूंगा;
वे कांटे-गोखरू तो मेरे हैं
जिन्हें मैं राह से चुनता हूं, चुनूंगा।

वह पथ तुम्हारा हो
जिसे मैं तुम्हारे हित बनाता हूं, बनाता रहूंगा;

मैं जो रोड़ा हूं, उसे हथौड़े से तोड़-तोड़
मैं जो कारीगर हूं, करीने से
संवारता-सजाता हूं, सजाता रहूंगा।

सागर किनारे तक
तुम्हें पहुंचाने का
उदार उद्यम ही मेरा हो;

फिर वहां जो लहर हो, तारा हो,
सोन-परी हो, अरुण सवेरा हो,

वह सब, ओ मेरे वर्ग!
तुम्हारा हो, तुम्हारा हो, तुम्हारा हो।

-अज्ञेय की प्रेम कविता
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय" 
(7 मार्च, 1911- 4 अप्रैल, 1987) 

Monday, August 1, 2016

आओ, हम फिर से जिएं........अजित कुमार



आओ हम फिर से जिएं
बहता-बहता मेघखंड जो
पहुंच गया है वहां क्षितिज तक...
लौटा लाएं उसे,
कहें .....
'ओ, फिर से बहो!
मंद, मंथर, मृदु ‍गति से...
शोभावाही मेघ, रसीले मेघ, दूत!
जो कथा कही थी, फिर से कहो!'

और...
अपलक, अविचल
हम उसे निरखते रहें, सुनें!

आओ, हम फिर से जिएं!


-अजित कुमार