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सकुची, लिपटी,
शरमाई सी रचना
जाग जाग है प्रात हुई,
सकुची, लिपटी, शरमाई ।
अष्ट अश्व रथ हो सवार
रक्तिम छटा प्राची निखार
अरुण उदय ले अनुपम आभा
किरण ज्योति दस दिशा बिखार ।
सृष्टि ले रही अँगड़ाई,
जाग जाग है प्रात हुई ।
कण - कण में जीवन स्पंदन
दिव्य रश्मियों से आलिंगन
सुखद अरुणिम ऊषा अनुराग
भर रही मधु, मंगल चेतन
मधुर रागिनी सजी हुई
जाग जाग है प्रात हुई ।
अंशु-प्रभा पा द्रुम दल दर्पित
धरती अंचल रंजित शोभित
भृंग-दल गुंजन कुसुम-वृंद
पादप, पर्ण, प्रसून, प्रफुल्लित ।
उनींदी आँखे अलसाई
जाग जाग है प्रात हुई ।
रमणीय भव्य सुंदर गान
प्रकृति ने छेड़ी मद्धिम तान
शीतल झरनों सा संगीत
बिखरते सुर अलौकिक भान ।
छोड़ो तंद्रा प्रात हुई
जाग जाग है प्रात हुई ।
उषा धूप से दूब पिरोती
ओस की बूँदों को सँजोती
मद्धम बहती शीतल बयार
विहग चहकना मन भिगोती ।
देख धरा है जाग गई
जाग जाग है प्रात हुई ।
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-कवि कुलवंत सिंह
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना प्रस्तुति
ReplyDelete सुंदर
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