अनर्थ को ललकारने से बचना
हूँ सहनशील पर इतना नहीं कि,
राह के पाषाण की तरह
कोई ठोकर मार दे...और
ढलमलाते एक कोने से
दूसरे कोने में जा गिरे...।
है धैर्य बेहद मूल्यों का
पर इतना नहीं कि;
समक्षी अपनी नैतिकता गटक जाए
और ताकते मुंह रह जाएं
चिर -चिरंतर तक।
है प्रवृति खुशमिजाज-सहृदय सी पर,
इतना नहीं कि;
धृष्टों की धृष्टता पर , हंसी जाए।
मित्रवत व्यवहार किया जाए ।
दोमुहें सांपो के भीड़ में खड़ी,
लिए कटोरा दूध का
पर खबरदार!!!
अनर्थ को ललकारने से बचना।
हूँ नम्र पर इतना नहीं कि
नरम समझकर
खीरे- ककरी की तरह चबा जाओ
..........................................
पैर के नीचे से ज़मीन खीचनें की
औकात हम रखते हैं।
-प्रगति मिश्रा 'सधु'
सुन्दर
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 28 सितंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
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