वक़्त को कितना भी बारीक़ गूँधो
कुछ पछ्तावों की किरचें रहती हैं
जैसे किसी गुम चोट का दर्द
जो है तो लेकिन कहाँ है
ऊँगली से छुआ नहीं जाता
इंसान क्या-क्या झेल जाता है
बाढ़ , चक्रवात, भूकंप , तूफ़ान
और किसी दिन कुनमुनी बारिश से ही
दिल के किले की दीवार
भरभरा कर गिर जाती है
सालों का मलबा बह निकलता है
होना और नहीं होना
निरंतर प्रक्रिया है
जैसे खोना पाना
कुछ और खोना कुछ और पाना
फिर खुद ही कोई गुम लम्हा हो जाना
जिसे कोई नहीं ढूंढ रहा
समंदर पाँव के तलवे चूमने के बाद
लौटता है, थोड़ा और धंसा जाता है
जैसे सुई से कुरेदने से
कोई टूटा काँटा
चमड़ी की एक और तह चीरता
दब जाता है और गहरा
तुम एक टूटा हुआ काँटा हो
मेरे दिल में
मैं एक ज़िंदा लाइलाज ज़ख्म हूँ
-पूजा प्रियंवदा
मूल रचना
https://wp.me/p3VurB-ju
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 02 अगस्त 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteसुन्दर सृजन।
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर सृजन।
ReplyDelete