सिसकती है डाली हवा रो रही है।
कली अधखिली फिर से रौंदी गई है।।
फ़िज़ा में उदासी घुली इस तरह अब,
जुबां सिल गयी आँख में भी नमी है।
मेरी ख़ैर ख़्वाही का दावा था करता,
तबाही मेरी देख लब पर हँसी है।
हुए तन्हा हम ज़िन्दगी के सफ़र में,
लगे अपनी सूरत ही अब अजनबी है।
यकीं है मुझे जिसकी रहमत पे हरदम,
उसे चारसू ही नज़र ढूंढती है।
उसे रात के क्या अँधेरे डरायें,
जो ताउम्र ख़ुद तीरगी में पली है।
नसीबा करो बंद अब आज़माना
ख़बर भी है क्या मेरी जां पर बनी है।
-दिव्या भसीन
वाह
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