हाय विधाता कलम क्या कहे
त्राही- त्राही मच रही यहाँ
जीवित को खा रहे हो भक्षक
कलम मौन ना रहे वहाँ !
हर ओर बढ़ रहा है अनजस
मन भी कुंद रहे भारी
कलम भरी मसि लिख ना पाये
क्या क्या गिनाऊँ में व्यभिचारी !
शेष नाग अब सागर छोडो
जग नागों के साथ रहो
विषधर से भी अधिक विषैले
नाग घूमते यहाँ देखो !
साँसो पर पहरे है देखो
गिद्दों जैसे इंसा है
नर भक्क्षो की चाहत देखो
लाशो पर ही जिंदा है !
जीवित रहा ना जीवित जैसा
मरने से पहले मर जाता
टूट रहा प्रभु धैर्य अब तो
और सहा नहीँ जाता !
प्रभु ज़ी अब तो आसन छोड़ो
हर ओर मची त्राही - त्राही
जीवित रहना अब दुष्कर है
कलम द्रवित सी हो आई !
कैसे चुप रहूँ में हाये
कवि मन तो चीत्कार करे
अति भीषण पीडा होती है
कब तक लेखनी मूक रहे !
हे मधुसूदन हे बनवारी
हे गुणाकार हे जग पालक
दया धर्म का नाश हो रहा
त्राहिमाम हे गोपालक !
ज़रा नेत्र खोल कर देखो
क्या थे हम क्या हो गये यहाँ
एक बार तो सुध लो स्वामी
धरा लोक जो तूने गढ़ा !
क्या प्रलय हुऐ पर आओगे
तब आकर क्या कर पाओगे
वचन टूट जायेगा तेरा
बस मन माही पछताओगे !
अति सदैव वर्जित है प्रभु ज़ी
प्रभु तेरी हो या मेरी हो
अति से पहले आओ गिरधर
अब आस बची बस तेरी हो !
डॉ. इन्दिरा गुप्ता ✍
सुन्दर
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखती है,
ReplyDeleteहर पल जिवंत हो उठता है
दिल को छूती प्रेरणा दायक रचना