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वह तोड़ती पत्थर;
देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर-
वह तोड़ती पत्थर।
कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बंधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार:-
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।
चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन,
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गई,
प्रायः हुई दुपहर :-
वह तोड़ती पत्थर।
देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार।
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-
"मैं तोड़ती पत्थर।"
पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी "निराला"
वाह्ह्ह.....दी.एक कालजयी कवि की अमर कृति को नमन।
ReplyDeleteशानदार
ReplyDeleteमन खुश गया पढ़कर
बहुत खूब
वाह
ReplyDeleteवाह काल जयी कवि की काल जयी रचना ...
ReplyDeleteनिराला ज़ी निराले ही कवि थे
नमन
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (25-12-2017) को "क्रिसमस का त्यौहार" (चर्चा अंक-2828) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
बहुत ही सुन्दर पंक्तियां!
ReplyDeletenice information
ReplyDeletevisit to https://www.brijnaarisumi.com
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गद्य मे जो स्थान मुंशी प्रेमचंद जी का है वोही स्थान पद्य मे छायावाद और आधुनिक काल मे निराला जी का है वो संवेदनशील और यथार्थ वादी कवि शिरोमणि हैं उनकी रचनाओं को और उनको नमन।
ReplyDeleteअविस्मरणीय काव्य।
शुभ संध्या ।
कालजयी रचना.
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