जाड़ा चाबुक पीठ पर
धाँय धाँय बरसाये
निर्धनता बेबस होकर
बिलख बिलख रही जाये !
झीनी सी ये गुदड़ी
कब तक ठण्ड बचाय
सर्दी भूख और गरीबी
सदा झगड़ती जाय !
कोहरा भर गया झोपड़ी
गला रहा है हाड
दिन दूनों रात चौ गुनो
लहू जमातों जाय !
जाड़ा बैरी दरिद्र को
शीत लहर तड़पाय
जर्रा जर्रा कोमल काया
जाड़े से थर्राये !
इत ओढ़ रजाई धुँध की
सो गया है दिनकर भी
धूप से कुछ मिलती गर्मी
शीत मिटाती तनि सी !
निर्धन का नहीँ कोई सहाई
ईश्वर ना इन्सान
समय ऐसा विकट है
बदली सबकी चाल !
डॉ. इन्दिरा गुप्ता ✍
संवेदनशील रचना....
ReplyDeleteसुन्दर
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना....अप्रतिम
ReplyDeleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना सोमवार 8 जनवरी 2018 के 906 वें अंक के लिए साझा की गयी है
ReplyDeleteपांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।