तुम कहते हो
मन के कोलाहल पर विजय के लिए
पीड़ा और अंतर्द्वंद्व से मुक्ति के लिए
दुःख
और सुख के झंझावातों को समझने लिए
ध्यान लगाया करूँ!
इससे समस्त बंधन मन में ही सिमट आएंगे
भीतर आनंदामृत प्लावित होगा
मोक्ष के द्वार खुलेंगे
ज्ञान के चक्षु खुलेंगे
बुद्ध हो जाऊँगी!!
परंतु मैं ध्यान में बैठ ही नहीं पाती
अपने भीतर अकेली हो ही नहीं पाती
ख्याल अक्सर मुझे घेर लेते हैं
कभी ये ख्याल कि बेटा भूखा तो नहीं
कभी ये ख्याल कि आज रसोई में क्या बनाऊं
कभी ये ख्याल कि तुम सुरक्षित तो हो
कभी माँ
कभी बाबा की फिक्र
अनगिनत ख्याल
असंख्य मुस्कुराहटें
अनेक दुःख
अनंत बंधन!!
इन बंधनों से मुक्त कैसे हो जाऊँ
नेह के हज़ार दायरे मुझे घेरे रहते हैं!
मैं जब आंखे बंद करती हूँ
मुझे तुम ही दिखाई देते हो
किसी शून्य पर केंद्रित कैसे रहूँ
कि मुझे तो नेह से लबालब रहना भाता है
कि जब तक तुम मुझे प्रेम से बाँधे रहोगे
मैं संतुष्ट रहूँगी
यही मोक्ष
यही निर्वाण
और समस्त ज्ञान यही!!
कि तुम साधना कर सकते हो
विलग हो सकते हो
शून्य में हर प्रश्न के उत्तर तलाश सकते हो
बुद्ध हो सकते हो!!
मुझे तो हर हाल यशोधरा ही होना होगा
राहुल को अंक लगाए रखना होगा
कदाचित् ये बंधन ही मेरी साधना है
ममत्व और स्नेह ही पूंजी हैं मेरी!!
तुम खोजो ज्ञान
मैं मथूंगी प्रेम!!
~निधि सक्सेना
वाह्ह्ह...बहुत ही लाज़वाब...👌👌
ReplyDeleteकि जब तक तुम मुझे प्रेम से बाँधे रहोगे
ReplyDeleteमैं संतुष्ट रहूँगी
यही मोक्ष
यही निर्वाण
और समस्त ज्ञान यही!!..... वस्तुतः यहीं बोधिसत्व है. बहुत उत्कृष्ट रचना.
बहुत बहुत शुक्रिया
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर....
ReplyDeleteलाजवाब अभिव्यक्ति ।
सुन्दर
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