दिल के लहू में आँखों के पानी में रहते थे
जब हम माँ बाप की निग़हबानी में रहते थे
नये मकानों ने हम सब को तन्हा कर दिया
सब मिल जुल के हवेली पुरानी में रहते थे
माँ बाबा दादा दादी चाचा चाची बुआ
कितने सारे किरदार एक कहानी में रहते थे
कैसी चिंता कैसी बीमारी कहाँ का बुढ़ापा
तमाम उम्र हम लोग सिर्फ़ जवानी में रहते थे
ये कभी तो तन्हा मिले तो इस पर वार करें
सारे दुश्मन हमारे इसी परेशानी में रहते थे
जब तक बड़े बूढ़े सयाने हमारे घरों में रहे
हम लोग बड़े मज़े से नादानी में रहते थे
बड़े होकर किस किस के आगे झुकना पड़ा
जब छोटे थे सब हमारी हुक्मरानी में रहते थे
-डॉ. विजय कुमार सुखवानी
लाजवाब ग़ज़ल ! बहुत खूब आदरणीय
ReplyDeleteलाजवाब ग़ज़ल ! बहुत खूब आदरणीय
ReplyDeleteउम्दा! रचना आदरणीय,आपकी लेखनी सधी व सार्थक है शुभकामनायें, आभार।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (25-04-2017) को
ReplyDelete"जाने कहाँ गये वो दिन" (चर्चा अंक-2623)
पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सार्थक और मनन करने योग्य!
ReplyDeleteसुन्दर।
ReplyDeleteबहुत ही उम्दा भाव विजय सुखवानी जी
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