साहिल की उम्मीद बाँधकर कश्ती चलती रही,
एक बेमानी सी जिगर मेँ पलती रही।
लौटने वाले चले गये रास्तोँ को अकेले छोड़कर,
उनकी याद मेँ उदासी भरी शाम ढ़लती रही।
आकर देख लो इस सिसकती जिन्दगी की तस्वीर,
जिसके बिखरते रंगो मेँ आरजू पिघलती रही।
सोच कर चला था कैद कर लूंगा तेरे अक्स को,
देखा तो दूर से तेरी परछाईँ गुजरती रही।
-प्रदीप दीक्षित
फेसबुक से
एक बेमानी सी जिगर मेँ पलती रही।
लौटने वाले चले गये रास्तोँ को अकेले छोड़कर,
उनकी याद मेँ उदासी भरी शाम ढ़लती रही।
आकर देख लो इस सिसकती जिन्दगी की तस्वीर,
जिसके बिखरते रंगो मेँ आरजू पिघलती रही।
सोच कर चला था कैद कर लूंगा तेरे अक्स को,
देखा तो दूर से तेरी परछाईँ गुजरती रही।
-प्रदीप दीक्षित
फेसबुक से
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति आज शनिवासरीय चर्चा मंच पर ।।
ReplyDeleteकुछ पंक्तियाँ वो सब कुछ कह देती हैं जो कभी कभी एक किताब भी नहीं कह पाती है.... ये वोही पंक्तियाँ हैं
ReplyDeleteशुक्रिया :)
उम्दा ग़ज़ल...
ReplyDeleteसुन्दर रचना..
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