आज घर में घुसा
तो वहां अजब दृश्य था
सुनिये- मेरे बिस्तर ने कहा-
यह रहा मेरा स्तीफ़ा
मैं अपने कपास के भीतर
जाना चाहता हूं
उधर कुर्सी और मेज का
संयुक्त मोर्चा था
दोनों तड़पकर बोले-
जी- अब बहुत हो चुका
आपको सहते - सहते
हमें बेतरह याद आ रहे हैं
हमारे पेड़
और उनके भीतर का वह
जिन्दा द्रव
जिसकी हत्या कर दी
आपने
उधर अलमारी में बंद
किताबें चिल्ला रही थी
खोल दो-हमें खोल दो
हम जाना चाहती हैं अपने
बांस के जंगल
और मिलना चाहती हैं
अपने बिच्छुओं के डंक
और सांपों के चुम्बन से
पर सबसे अधिक नाराज थी
वह शॉल
जिसे अभी कुछ दिन पहले
कुल्लू से खरीद लाया था
बोली साहब!
आप तो बड़े साहब निकले
मेरा दुम्बा मुझे कब से
पुकार रहा है
और आप हैं कि अपनी देह
की कैद में लपेटे हुए हैं मुझे
उधर टीवी. और फोन का
बुरा हाल था
ज़ोर-ज़ोर से कुछ कह रहे थे
पर उनकी भाषा
मेरी समझ से परे थी
-कि तभी
नल से टपकता पानी तड़पा-
अब तो हद हो गई साहब!
अगर सुन सकें तो सुन
लीजिये इन बूंदो की आवाज-
कि अब हम
यानि सारे के सारे
क़ैदी आदमी की जेल से
मुक्त होना चाहते हैं
अब जा कहां रहे हैं
मेरा दरवाज़ा कड़का
जब मैं बाहर निकल रहा था
-केदारनाथ सिंह
कवि को हाल ही में
प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ पुरस्कार
प्रदान किये जाने की घोषणा हुई है
स्रोतः मधुरिमा
वाह ।
ReplyDeleteखुबसूरत रचना
ReplyDeleteVaah! Kya khoobsurat!
ReplyDeleteLiked it too much...shared with f/ friends!
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