रिश्तों की बारीक-बारीक तहें
सुलझाते हुए
उलझ-सी गई हूं,
रत्ती-रत्ती देकर भी
लगता है जैसे
कुछ भी तो नहीं दिया,
हर्फ-हर्फ
तुम्हें जानने-सुनने के बाद भी
लगता है
जैसे
अजनबी हो तुम अब भी,
हर आहट
जो तुमसे होकर
मुझ तक आती है
भावनाओं का अथाह समंदर
मुझमें आलोड़ित कर
तन्हा कर जाती है।
एक साथ आशा से भरा,
एक हाथ विश्वास में पगा
और
एक रिश्ता सच पर रचा,
बस इतना ही तो चाहता है
मेरा आकुल मन,
दो मुझे बस इतना अपनापन...
बदले में
लो मुझसे मेरा सर्वस्व-समर्पण....
सुलझाते हुए
उलझ-सी गई हूं,
रत्ती-रत्ती देकर भी
लगता है जैसे
कुछ भी तो नहीं दिया,
हर्फ-हर्फ
तुम्हें जानने-सुनने के बाद भी
लगता है
जैसे
अजनबी हो तुम अब भी,
हर आहट
जो तुमसे होकर
मुझ तक आती है
भावनाओं का अथाह समंदर
मुझमें आलोड़ित कर
तन्हा कर जाती है।
एक साथ आशा से भरा,
एक हाथ विश्वास में पगा
और
एक रिश्ता सच पर रचा,
बस इतना ही तो चाहता है
मेरा आकुल मन,
दो मुझे बस इतना अपनापन...
बदले में
लो मुझसे मेरा सर्वस्व-समर्पण....
एक साथ आशा से भरा,
ReplyDeleteएक हाथ विश्वास में पगा
और
एक रिश्ता सच पर रचा...........
हर आकुल मन की यही कथा व्यथा है....
ये अफसाना तेरा भी है... मेरा भी......
मर्मस्पर्शी रचना...................
फाल्गुनी की कलम.......
Deleteसच मे राहुल कभी-कभी रुला भी देती है
आभार
यही तो स्त्री प्रेम है अपनत्व पर सबकुछ
ReplyDeleteसमर्पित कर देती है...
मन को छु लेनेवाली रचना...
आभारी हूँ रीना बहन
Deleteधन्यवाद
waah...
ReplyDeleteशुक्रिया अनवर भाई
Deleteबस इतना ही तो चाहता है
ReplyDeleteमेरा आकुल मन,
दो मुझे बस इतना अपनापन...
बदले में
लो मुझसे मेरा सर्वस्व-समर्पण....
शानदार पंक्तियाँ
सादर
धन्यवाद भाई
Deleteएक साथ आशा से भरा,
ReplyDeleteएक हाथ विश्वास में पगा
और
एक रिश्ता सच पर रचा,
बस इतना ही तो चाहता है
मेरा आकुल मन,....वाह यशोदाजी ....यही तो रिश्तों का सार है ...बहुत सुन्दर !!!!
शुक्रिया सरस बहन
Deleteसादर
यह कविता संबंधों की जड़ की बात करती है. बहुत सुंदर कविता.
ReplyDeleteमैं मात्र पाठिका हूँ
Deleteवैसे स्मृति बहन के कलम का मुरीद हूँ
आभार आपका
सादर
बस इतनी सी चाहत .....वही पूरी नहीं हो पाती .... सुंदर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteदीदी प्रणाम
Deleteसादर
akhir ki chand panktiyan chu gayi man ko....jo ye itni si chahat hai wahi puri nahi hoti......
ReplyDeleteशुक्रिया रेवा बहन
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