मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
शायद तेरे कल्पनाओं
की प्रेरणा बन
तेरे केनवास पर उतरुँगी
या तेरे केनवास पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
ख़ामोश तुझे देखती रहूँगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
या सूरज की लौ बन कर
तेरे रंगो में घुलती रहूँगी
या रंगो की बाँहों में बैठ कर
तेरे केनवास पर बिछ जाऊँगी
पता नहीं कहाँ किस तरह
पर तुझे ज़रुर मिलूँगी
या फिर एक चश्मा बनी
जैसे झरने से पानी उड़ता है
मैं पानी की बूंदें
तेरे बदन पर मलूँगी
और एक शीतल अहसास बन कर
तेरे सीने से लगूँगी
मैं और तो कुछ नहीं जानती
पर इतना जानती हूँ
कि वक्त जो भी करेगा
यह जनम मेरे साथ चलेगा
यह जिस्म ख़त्म होता है
तो सब कुछ ख़त्म हो जाता है
पर यादों के धागे
कायनात के लम्हें की तरह होते हैं
मैं उन लम्हों को चुनूँगी
उन धागों को समेट लूंगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
मैं तुझे फिर मिलूँगी!!
-अमृता प्रीतम
मैं तुझे फिर मिलूँगी!!
-अमृता प्रीतम
बहुत सुंदर रचना कोमल भावनाओं में पिरोई हुई सी
ReplyDeleteबहुत सुन्दर 👌👌
ReplyDeleteअमृता प्रीतम जी की अनमोल रचना को साझा करने के लिए दिल से शुक्रिया दी एवं नमन
ReplyDeleteअटल भरोसा शाश्वत प्रेम पर । अति सुन्दर प्रस्तुति ।
ReplyDeleteलाजवाब सृजन शेयर करने हेतु धन्यवाद आपका।
ReplyDeleteबेहतरीन रचना।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना ।
ReplyDeleteकोमल भावों से सजी सुंदर रचना
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