अपनी मोहब्बत को इक नाम यह भी दे दो-
ये अजनबी सी आंखों का समर्पण है बस
ना तुम हो, ना मैं हूं, ना जमाने की भीड़-
हम दोनों के बीच खड़ा गूंगा दर्पण है बस।
क्या दूं, क्या है, पास मेरे बताओ तो जरा-
मेरा तो हर ख्वाइश तुझ पर अर्पण है बस।
सुनो जरा, समझो मुझे, झांक कर देखो तो-
मेरे मन के हर ख्वाब में तेरा ही दर्शन है बस।
भला दूं तुम्हें या, तुम भूल जाओ, "अजनबी"-
समझ लेना उसी दिन, हो गया तड़पन है बस।।
- "अजनबी"
- "अजनबी"
वाह
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 14 दिसंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर और सारगर्भित रचना..।
ReplyDeleteबहुत सुंदर और सारगर्भित रचना..।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना।
ReplyDeleteभावपूर्ण सुंदर रचना।
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteबहुत सुंदर