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जहाँ नहीं अधिकार न जाना।
तुम सीमा के पार न जाना।।
दीपक एक पतंगे लाखों
स्वप्न लिए परिणय की आँखों
कुछ भी हाथ नहीं आता है
मृग-तृष्णा संसार न जाना?
तुम सीमा के पार न जाना।।
सबके मन मे चंचलता है
जिसको जितना भी मिलता है
इच्छाएँ बढ़ती जाती हैं
जीवन का व्यवहार न जाना?
तुम सीमा के पार न जाना।।
सुख में साथ निभाती है यह
दुःख में ऑंख दिखाती है यह
संकट के घिरते ही दुनियाँ
करती तीखे वार न जाना?
तुम सीमा के पार न जाना।।
-कौशल शुक्ला
बहुत बढ़िया।
ReplyDeleteजिसको जितना भी मिलता है
ReplyDeleteइच्छाएँ बढ़ती जाती हैं
जीवन का व्यवहार न जाना?
तुम सीमा के पार न जाना।।
वाह !!!बहुत बढ़िया
वाह!! रचना सटीक भी है, और उस में रस भी है। पढ़ना बहुत अच्छा लगा!
ReplyDeleteVery nice
ReplyDeleteकितनी खूबसूरती से आपने सारी बात कह डाली कौशल जी ...वाह ...कि
ReplyDeleteसबके मन मे चंचलता है
जिसको जितना भी मिलता है
इच्छाएँ बढ़ती जाती हैं
जीवन का व्यवहार न जाना?
तुम सीमा के पार न जाना।।...वाह