कुछ इस तरह मैं करूं मोहब्बत
सम्हल के भी तू कभी न सम्हले
बस इतना हो जब उठे जनाजा
हमारा और दम तुम्हारा निकले।
मैं टूट जाऊं तो गम नहीं है
सितम ये तेरा सितम नहीं है।
बदल गए कुछ बदल भी जाओ
हमारे दिल की वफ़ा न बदले।
इक बार सो के कभी जगे ना
सुना है एक ऐसी नींद भी है
मैं चैन से तब सो सकूं जब
तुम्हारे लब से दुआ न निकले ।
फिर हम मिलें न मिल पाएं
मेरी खता की सजा सुना दो
भर जाए दिल जब किसी से तो
कैसे मुमकिन खता न निकले।
कहोगे क्या तुम अपने दिल से
भुलाओगे किस तरह से हमको
के दूर जाओगे कैसे मुझसे कहीं
दिल तेरा मेंरा पता न निकले।
मैं एक ग़ज़ल किताब ए ,जानिब,
पढ़ो य कागज स तुम जाला दो
रुसवाईयां हो जाएं न तेरी मुझे
जलाना ऐसे धुआं न निकले।
-पावनी जानिब सीतापुर
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 24 सितंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर
ReplyDeleteलाजवाब सृजन
ReplyDeleteवाह!!!