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तुमसे गर आशिक़ी नहीं होती ।
सच कहूँ शाइरी नहीं होती ।।
तुम अगर ख़्वाब में नहीं आते ।
लेखनी यूँ चली नहीं होती ।।
जो न अंजाम तक पहुंच पाए ।
वो मुहब्बत भली नहीं होती ।।
क़ैद ए उल्फ़त से छूट जाता मैं।
काश नजरें पढ़ी नहीं होती ।।
रोज़ जाता हूँ मैकदे तक मैं ।
पर कोई मयकशी नहीं होती ।।
उनसे इज़हारे इश्क़ कर लूं मैं ।
मेरी हिम्मत कभी नहीं होती ।।
कुछ तो तुम भी क़रीब आ जाओ ।
बारहा बेबसी नहीं होती ।।
चैन से रात भर मैं सो लेता ।
गर वो खिड़की खुली नहीं होती ।।
स्याह रातों का है असर साहिब ।
चाँद की बन्दगी नहीं होती ।।
-डॉ. नवीन मणि त्रिपाठी
बहुत बढ़िया
ReplyDeleteआ0 बहुत बहुत शुक्रिया
Deleteवाह
ReplyDeleteआ0 बहुत बहुत शुक्रिया
ReplyDeleteआ0 यशोदा जी ग़ज़ल प्रकाशित करने हेतु तहेदिल से शुक्रिया
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