13 दिसम्बर 1866 – 1 नवम्बर 1955
देख लेना तुम कि दुनिया क्या से क्या हो जाएगी
और ही कुछ बाग़-ए-आलम की हवा हो जाएगी
क़िस्से सब दैर-ओ-हरम के मिट जाने को हैं
बांग, नाक़ूस ओ अज़ाँ की हमनवा हो जायेगी
तंग-नज़री और तअस्सुब का अमल उठ जायेगा
क़ौमियत, इंसानियत का आइना हो जायेगी
अम्न, जंग और अज़्म-ए-ख़ूंरेज़ी पे ग़ालिब आएगा
वजह हुब्बे ख़ल्क़, हुब्बे किब्रिया हो जाएगी
ये जो है बैत-उल-हिज़्न, हो जायेगा दार-उस-सुरूर
तुम फ़ना जिसको समझते हो बक़ा हो जाएगी
-ब्रजमोहन दत्तात्रेय कैफ़ी
और ही कुछ बाग़-ए-आलम की हवा हो जाएगी
क़िस्से सब दैर-ओ-हरम के मिट जाने को हैं
बांग, नाक़ूस ओ अज़ाँ की हमनवा हो जायेगी
तंग-नज़री और तअस्सुब का अमल उठ जायेगा
क़ौमियत, इंसानियत का आइना हो जायेगी
अम्न, जंग और अज़्म-ए-ख़ूंरेज़ी पे ग़ालिब आएगा
वजह हुब्बे ख़ल्क़, हुब्बे किब्रिया हो जाएगी
ये जो है बैत-उल-हिज़्न, हो जायेगा दार-उस-सुरूर
तुम फ़ना जिसको समझते हो बक़ा हो जाएगी
-ब्रजमोहन दत्तात्रेय कैफ़ी
सुन्दर प्रस्तुति
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