एक सुबह इक मोड़ पर
मैने कहा उसे रोक कर
हाथ बढ़ा ए ज़िंदगी
आँख मिला के बात कर
रोज़ तेरे जीने के लिये,
इक सुबह मुझे मिल जाती है
मुरझाती है कोई शाम अगर,
तो रात कोई खिल जाती है
मैं रोज़ सुबह तक आता हूं
और रोज़ शुरु करता हूं सफ़र
हाथ बढ़ा ए ज़िंदगी
आँख मिला के बात कर
तेरे हज़ारों चेहरों में
एक चेहरा है, मुझ से मिलता है
आँखो का रंग भी एक सा है
आवाज़ का अंग भी मिलता है
सच पूछो तो हम दो जुड़वां हैं
तू शाम मेरी, मैं तेरी सहर
हाथ बढ़ा ए ज़िंदगी
आँख मिला के बात कर
मैने कहा उसे रोक कर.
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-गुलज़ार
वाह
ReplyDeleteगुलज़ार साहब सदा लाजवाब।
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 20.8.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
वाह
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत सुंदर
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