पिछले पोस्ट पर कई लोगों ने इच्छा व्यक्त की ..
वहाँ जिस कविता का ज़िक्र हुआ था
उसे पढ़ने की .. तो प्रस्तुत है ..
कभी मुंतज़िर चश्में
ज़िगर हमराज़ था
कभी बेखबर कभी
पुरज़ुनू ये मिजाज़ था
कभी गुफ़्तगू के हज़ूम तो
कभी खौफ़-ए-ज़द
कभी बेज़ुबां
कभी जीत की आमद में मैं
कभी हार से मैं पस्त था...
कभी शौख-ए-फ़ितरत का नशा
कभी शाम-ए-ज़श्न
ख़ुमार था
कभी था हवा का ग़ुबार तो
कभी हौसलों का पहाड़ था
कभी ज़ुल्मतों के शिक़स्त में
ख़ामोशियों का शिकार था
कभी थी ख़लिश कभी रहमतें
कभी हमसफ़र का क़रार था..
कभी चश्म-ए-तर की
गिरफ़्त में
सरगोशियों का मलाल था
कभी लम्हा-ए-नायाब में
मैं भर रहा परवाज़ था
कभी था उसूलों से घिरा
मैं रिवायतों के अजाब में
कभी था मज़ा कभी बेमज़ा
सूद-ओ-जिया के हिसाब में..
मैं था बुलंदी पर कभी
छूकर ज़मीं जीता रहा
कभी ये रहा,कभी वो रहा
और जिंदगी चलती रही .……
-मृदुला प्रधान
मूल रचना
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