फिर कहीं मधुमास की पदचाप सुन,
डाल मेंहदी की लजीली हो गई।
दूर तक अमराइयों, वनबीथियों में
लगी संदल हवा चुपके पांव रखने,
रात-दिन फिर कान आहट पर लगाए
लगा महुआ गंध की बोली परखने
दिवस मादक होश खोए लग रहे,
सांझ फागुन की नशीली हो गई।
हंसी शाखों पर कुंआरी मंजरी
फिर कहीं टेसू के सुलगे अंग-अंग,
लौट कर परदेश से चुपचाप फिर,
बस गया कुसुमी लताओं पर अनंग
चुप खड़ी सरसों की गोरी सी हथेली
डूब कर हल्दी में पीली हो गई।
फिर उड़ी रह-रह के आंगन में अबीर
फिर झड़े दहलीज पर मादक गुलाल,
छोड़ चन्दन-वन चली सपनों के गांव
गंध कुंकुम के गले में बांह डाल
और होने के लिए रंगों से लथपथ
रेशमी चूनर हठीली हो गई।
~ रामानुज त्रिपाठी
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 05 फरवरी 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteवाह, बहुत सुंदर
ReplyDeleteवाह बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteबहुत सुंदर सार्थक दृष्टि।
ReplyDelete