कैसा होता होगा
आत्मा का शरणार्थी
हो जाना
गुड़ में, साग में
हवा में
ढूंढना सरहद पार की खुश्बू
और घंटों हर-रोज़
आँखें बंद कर देखना
अपने बचपन का घर
ठिठुरते हाथों से
शालें स्वेटरें बेचते
उम्मीद की आखरी डोर को
हिमालय के उस पार
पोटाला के गुम्बदों से
बांधे रखना
टिमटिमाती नीली-पीली
बस्तियों में
सपने देखना
ब्रह्मपुत्र के पार के
हरे खेतों
की पहली फसल के
या बर्लिन की बर्फ़बारी में
कांगड़ी की कमी
महसूस करना
और पहन लेना
यादों का तार-तार पुराना फेरन
या फिर ऐसा होना
मेरी तरह
जड़ों से मुक्त
अनेक अजीब शहरों में
छोड़ आना
अपनी थोड़ी थोड़ी आत्मा
और बन जाना
एक निरंतर पथिक .
- पूजा प्रियंवदा
लाजवाब 👌👌👌
ReplyDeleteबहुत ही हृदयस्पर्शी
ReplyDeleteवाह!!!
बहुत सुन्दर सृजन
ReplyDeleteShukriya aap sab ka
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