बेसन की सोंधी रोटी पर
खट्टी चटनी जैसी माँ
याद आती है चौका बासन
चिमटा फुकनी जैसी माँ
बान की खुर्री खाट के ऊपर
हर आहट पर कान धरे
आधी सोयी आधी जागी
थकी दुपहरी जैसी माँ
चिडियों की चहकार में गूंजे
राधा-मोहन अली-अली
मुर्गे की आवाज से खुलती
घर की कुण्डी जैसी माँ
बीबी बेटी बहन पडोसन
थोडी थोडी सी सब में
दिनभर एक रस्सी के ऊपर
चलती नटनी जैसी माँ
बाँट के अपना चेहरा माथा
आँखे जाने कहाँ गयीं
फटे पुराने एक एल्बम में
चंचल लड़की जैसी माँ
वाह
ReplyDeleteबहुत कमाल की ग़ज़ल है ये ... शायद निदा फाज़ली की ...
ReplyDeleteबहुत लाजवाब ...
बहुत ही प्यारी रचना ,संजय जी
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