बस एक लम्हे का झगड़ा था
दर-ओ-दीवार पे ऐसे छनाके से गिरी आवाज़
जैसे काँच गिरता है
हर एक शय में गई
उड़ती हुई, चलती हुई, किरचें
नज़र में, बात में, लहजे में,
सोच और साँस के अन्दर
लहू होना था इक रिश्ते का
सो वो हो गया उस दिन
उसी आवाज़ के टुकड़े उठा के फर्श से उस शब
किसी ने काट ली नब्जें
न की आवाज़ तक कुछ भी
कि कोई जाग न जाए
बस एक लम्हे का झगड़ा था
-गुलज़ार
मूल रचना
कविताकोश
कविताकोश
बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteवाहः
ReplyDeleteएक लम्हें का झगड़ा था
बहुत ही बेहतरीन
ReplyDeleteवाह!
ReplyDeleteअद्भुत भाव समेटे ।
ReplyDeleteबेमिसाल।
अद्भुत भाव समेटे ।
ReplyDeleteबेमिसाल।
वाह !बेहतरीन
ReplyDeleteसादर
हृदयस्पर्शी!
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