उम्र के बोझिल पड़ाव पर
जीवन की बैलगाड़ी पर सवार
मंथर गति से हिलती देह
बैलों के गलेे से बंधा टुन-टुन की
आवाज़ में लटपटाया हुआ मन
अनायास ही एक शाम
चाँदनी से भीगे
गुलाबी कमल सरीखी
नाजुक पंखुड़ियों-सी चकई को देख
हिय की उठी हिलोर में डूब गया
कुंवारे हृदय के
प्रथम प्रेम की अनुभूति से बौराया
पीठ पर सनसनाता एहसास बाँधे
देर तक सिहरता रहा तन
मासूम हृदय की हर साँस में
प्रेम रस के मदभरे प्याले की घूँट भरता रहा
मताया
पलकें झुकाये भावों के समुंदर में बहती चकई
चकवा के पवित्र सुगंध से विह्वल
विवश मर्यादा की बेड़ी पहने
अनकहे शब्दों की तरंगों से आलोड़ित
मन के कोटर के कंपकंपाते बक्से के
भीतर ही भीतर
गूलर की कलियों-सी प्रस्फुटित प्रेम पुष्प
छुपाती रही
तन के स्फुरण से अबोध
दो प्यासे मन का अलौकिक मिलन
आवारा बादलों की तरह
अठखेलियाँ करते निर्जन गगन में
संवेदनाओं के रथ पर आरुढ़
प्रेम की नयी ऋचाएँ गढ़ते रहे
स्वप्नों के तिलिस्म से भरा अनकहा प्रेम
यर्थाथ के खुरदरे धरातल को छूकर भी
विलग न हो सका
भावों को कचरकर देहरी के पाँव तले
लहुलुहान होकर भी
विरह की हूक दबाये
अविस्मरणीय क्षणों की
टीसती अनुभूतियों को
अनसुलझे प्रश्नों के कैक्टस को अनदेखा कर
नियति मानकर श्रद्धा से
पूजा करेंगे आजीवन
प्रेम की अधूरी कहानी की
पूर्ण अनुभूतियों को।
-श्वेता सिन्हा
वाहः उत्तम शब्द संयोजन के साथ भाव पूर्ण रचना
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 28.11.2019 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3533 में दिया जाएगा । आपकी उपस्थिति मंच की गरिमा बढ़ाएगी
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
वाह !बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबेहतरीन सृजन स्वेता।
ReplyDelete.. बहत्त उम्दा
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