Wednesday, September 11, 2019

बहते हुये ज़ज़्बात हैं ...श्वेता सिन्हा

नज़र-नज़र की बात है
सच-झूठ,दिन या रात है

ख़ामोश हुई सिसकियाँ
बहते हुये ज़ज़्बात हैं 

लब थरथरा के रह गये
नज़रों की मुलाकात है

साँसों की ये सरगोशियाँ
नज़रों की ही सौगात है

रोया है कोई ज़ार-ज़ार
बिन अभ्र ही बरसात है

दिल की बिछी बिसात पर
नज़रों की शह और मात है

मनमर्ज़ियाँ चलती हो जब
नजरों की क्या औकात है

8 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 11 सितंबर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. वाह बेहतरीन रचना स्वेता।

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल गुरुवार (12-09-2019) को      "शतदल-सा संसार सलोना"   (चर्चा अंक- 3456)     पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    --
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  4. वाह बहुत खूब श्वेता, बेहतरीन बंध हैं,सार युक्त कथन, एहसासों का सुंदर संगम ।
    उम्दा।

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  5. वाह बेहतरीन रचना श्वेता जी

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  6. रोया है कोई ज़ार-ज़ार
    बिन अभ्र ही बरसात है
    बहुत खूब प्रिय श्वेता। हर शेर शानदार है। हार्दिक शुभकामनायें

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  7. उर्दू की बहुत जानकारी तो नही , पर जितना समझ पाया, अच्छा लगा .. ख़ास कर ...
    " दिल की बिछी बिसात पर
    नज़रों की शह और मात है "
    "अभ्र" मतलब ?

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