वैसे तो चाँद तारों से अपनी शनासाई है।
क्या करें किस्मत में लेकिन रात की स्याही है।
आइना थे और दोस्ती हो गयी एक संग से।
उसकी आदत की वजह चोट हमने खाई है।
रात की यूँ गोद में लेटे तो रहे रात भर।
कुछ बात थी या याद थी जो नींद नहीं आई है।
बाद तेरे रह गया कोई न जीने का सबब।
भीड़ या खल्वत कहीं भी सिर्फ अब तनहाई है।
काट कर चला गया और आज भी अंजान है ।
मुस्कराकर पूछता ये शाख क्यों मुरझाई है।
खेल जिंदगी का, या शतरंज की चाल हैं।
वक्त ने अपनी बिसात तकदीर पर बिछाई है।।
मुस्कराकर पूछता ये शाख क्यों मुरझाई है।
खेल जिंदगी का, या शतरंज की चाल हैं।
वक्त ने अपनी बिसात तकदीर पर बिछाई है।।
-आशीष दुबे
इटावा उप्र
शानसाई -परिचय, संग- पत्थर
सबब-कारण , खल्वत-अकेलापन
शानसाई -परिचय, संग- पत्थर
सबब-कारण , खल्वत-अकेलापन
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (11-03-2019) को "लोकसभा के चुनाव घोषित हो गए " (चर्चा अंक-3270) (चर्चा अंक-3264) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत ही लाजवाब गजल....
ReplyDeleteवाह!!!
बहुत सुंदर आशीष जी, ऐसे ही लिखते रहिए।
ReplyDeleteBahut badhiya.
ReplyDeleteउम्दा बेहतरीन।
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
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